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परिस्थितिवश / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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विपत्तिक अबइछ जखन बिहाड़ि, ककर मन भय न ऊठैय-अधीर?

जीवने थिक महान संघर्ष
रहै अछि अबिते दुख आ हर्ष
वर्ष पर बीतल जाइछ वर्ष धनुषसँ छूटल जाइछ तीर।
ककर मन भय न उठैल अधीर॥

हर्षमे सभक चित्त उधिआय,
शोकमे अयलो बल अधिआय,
जाय धरि सब जन एके ठाम, रहय राजा वा रंक-फकीर।
ककर मन भय न उठैल अधीर?

हर्षमे अधर-अधर मुसकान,
शोकमे आकुल-आकुल प्रान
ध्यानमे अबितहि विषम वियोग, नयनमे भरि-भरि आबय नीर।
ककरमन भय न उठैल अधीर?

विचारक वनमे झंझा झोंक
देखि कयअड़ि जाइछ जे लोक,
रोक वा टोक न मानि लडै़छ, तखन नहि रूचय गुलाल अवीर।
ककर मन भय न उठैल अधीर?

चली तेँ आगाँ पाछाँ देखि,
बनाबी मित्र विवेक परेखि,
लेखि यदि क्षण भंगुर संसार तखन की मोल रखैल शरीर?
ककर मन भय न उठैल अधीर?