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गुंडा समय / लीलाधर जगूड़ी

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एक

इस गुंडा समय में न मैं लाठी होना चाहता हूँ
न चाकू न पिस्‍तौल
इस गुंडा समय में मैं अपने समय का
एक गुंडा नहीं होना चाहता हूँ

क्‍योंकि अगर मैं होना भी चाहूँ तो
एक गुंडे का दोस्‍त हुए बिना मैं हो भी नहीं सकता
हो सकता है होकर मैं यह कहना चाहूँ
कि मैं हिंदू हूँ

हो सकता है होकर मैं यह कहना चाहूँ
कि मैं एक मुसलमान हूँ
हो सकता है यह सब कुछ न कहकर
सिर्फ कहूँ कि मैं एक गऊ आदमी हूँ

हो सकता है कि होकर मैं इतना कहूँ
कि आदमी क्‍या हूँ सूअर हूँ

इस गुंडा समय में जानवर होकर भी
घृणा का पात्र हुए बिना नहीं रह पाऊँगा मैं

कभी हिंदू होकर किसी हिंदू गुंडे की प्रतीक्षा करूँगा
कभी मुसलमान होकर किसी मुस्लिम गुंडे का इंतजार
जो मुझे जितनी बार आ-आकर बचाएँगे
उतनी बार मारा जाऊँगा मैं
सारी व्‍यवस्‍थाओं का भरोसा छीनकर
इस गुंडा समय में
न मैं मंदिर में रहना चाहता हूँ न मस्जिद में

मैं एक रहने योग्‍य घर में रहते हुए
कहने योग्‍य बात कहना चाहता हूँ
कि मैं धार्मिक नहीं एक मार्मिक संबंध हूँ
मैं मनुष्‍य हूँ। आदमी हूँ। व्‍यक्ति हूँ। नागरिक हूँ
इस गुंडा समय में हुए बिना
क्‍या मैं यह सब हो सकता हूँ?
अगर नहीं
तो फिर मैं नहीं हूँ। नहीं हूँ। नहीं हूँ।

दो

नहीं होकर भी मैं हूँ इस गुंडा समय में
जितना मैं भागता जाता हूँ
उतनी ही फैलती जाती है आग
जितना मैं वापस आता हूँ
उतना ही जला हुआ पाता हूँ आस-पास

वापस आता हूँ राख दबती चली जाती है
वापस आता हूँ मिट्टी वापस आने लगती है
कुचली हुई घास में से वापस आता हूँ
नई घास की तरह
वापसी में फूटती हैं नई जड़ें
जड़ें फूटती हैं मेरे पुराने वास्‍तों से
नई फुनगियों तक वापस आता हूँ मैं
नये फूलों तक वापस आता हूँ मैं

नहीं होकर भी मैं हूँ इस गुंडा समय में
भाग भागकर वापस आया हुआ
जलकर खाक से मिलकर
एक नए कल्‍ले की धड़कन सा गूँगा
वापस आता हूँ मैं

आस-पास पाता हूँ जो आस-पास नहीं था
नहीं होकर भी मैं हूँ इस गुंडा समय में
अपने जैसों से घिरा हुआ
अपने जैसों के आस-पास।