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नेटरा हाथ / कुमार मुकुल

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लेटा पढता होता हूं
तो किताब उठाये रखता है दाहिना
और हल्के थामे नेटरा
पलटता चलता है पन्ना
लिखते लिखते रूक जाती है कलम
तब होंठों को सुसराता है नेटरा
जैसे जानता हो किधर छुपे हैं भाव
फिर कलम सरकते
ठुड्डी से अड देखता है निस्पंद
लिखते दाहिने केा
जैसे खबर ही ना हो कुछ
सोते चिंतक की मुद्रा में
माथे पर पडा होता है दाहिना
तब नेटना लेटा रहता है
अनपढ प्रिया सा पास ही
कहीं सुरसुरी होती तो सहलाता
फिर दाहिने की अंगुलियों में
अंगुलियां फंसा
मनौवल करता सा सो जाता

झगडा झांटी में
लपक लेता दाहिना
कॉलर किसी का
तो अनहोनी के भय से कांपता नेटरा
विनती करने लगता ईश्वर से
बॉस को यंत्र सा
सैल्यूट दागता दाहिना
तो शर्म आती नेटने को
और बगल छिपने की कोशि‍श करता वह

मित्रों से भेंट बखत
पछताता नेटरा
विदा की बेर भी
उछल उछल देर तक
हाथ हिलाता दाहिना ही
बछडे की पीठ भी वही सहलाता

पर गाय दूहना हो या समाज
नेटरे को घसीट लेता साथ वह
सारी गंदगी साफ कराता उसी से
और थमा देता रूमाल
लो पडे रहो ल‍िपटे बांयी जेब में

कभी तो चुनौती ही दे देता नेटरा
कि रस्सी बंटने से बेलचा चलाने तक
बंदूक थामने से बोझ उठाने तक
है कोई काम जो हो बगैर नेटरा के

एक दिन मुझे लगा
कि दम है नेटरा में
तो पकडा दिया कलम
कि उतारे प्रेमगीत कोई
बिचकती अंगुलियों से

तब बना दिये उसने
कौए के टांग कई
बचपन में जैसा
लिखा करता था दाहिना

तब साहूकार से
लाया सिलेट पिनसिन
पकडाया नेटरा को
भारी भारी सा
लग रहा था उसे
कि बहाना कर रहा था वह
मैंने समझाया
भारी है
तो रख दो जमीन पर
और लिखो
पालथी मार कर लिखो।

1990 मंगलेश डबराल की एक कविता पढकर।