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कब तक / रश्मि रेखा

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पतझर के पत्तों से
कोई कब तक मनाये वसंत
अखबारों के अक्षर
चींटियों की तरह रेंगते हैं
आकड़ों के इन्द्रधनुषी सैलाब
तेजी से उमड़-उमड़ के आते हैं
पर टूटे छपपरों की सीलन और
डेट- एक्सपायर्ड होती जा रही
दवाओं के बीच भी
दवा के अभाव में
बीमार बच्चें की छटपटाहट
हरी घास की तरह फैलती चली जाती है

ज़िन्दगी के हर मोर्चे पर हारते हुए
तीखा अहसास होता है
कि हमला बराबर पीछे की ओर से ही होता रहा
और तब
मन की टूटन और आँखों में विद्रोह लिए
अक्सर अपने को
इन क़ुतुब-मीनारी आँकड़ों में तलाशा है
जो मेरे लिए कतई नहीं हैं

वादे नारे और जुलूस की राजनीति के बीच
शब्दों के अर्थ
तस्वीरों के रंग से सूखने लगते हैं
और मुझे नहीं मालूम
इस तिरंगे आकाश के नीचे
दुरंगी होती देश की अधिकांश राजनीति के बीच
मुझे कबतक झेलनी है
उनके अपराधों की बनती
ये लम्बी फ़ेहरिस्त