Last modified on 15 अक्टूबर 2014, at 13:27

समन सरीसी / नाज़िम हिक़मत

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:27, 15 अक्टूबर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नाज़िम हिक़मत |अनुवादक=सुरेश सलि...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सुबह के वक़्त बिना किसी इत्तिला के, एक्सप्रेस दाखिल हुई स्टेशन में
बर्फ में ढंकी हुई
मैं प्लेटफार्म पर खड़ा हुआ, मेरे कोट के कॉलर उठे हुए
प्लेटफार्म खाली था
स्लीपर क्लास का एक दरीचा मेरे सामने आकर रुका
उसके पर्दे हटे हुए
निचली बर्थ पर एक हसीन औरत सोई हुई,
धुँधली रोशनी में
उसके भूरे-भूरे बनहरे बाल
उसकी बरौनियां नीलगूं
उसके भरपूर सुर्ख होंठ खजी और बरबादी का अहसास कराते हुए,
मैंने नहीं देखा कि ऊपरली बर्थ पर कौन सोया हुआ है
बिना किसी इत्तिला के, एक्सप्रेस स्टेशन के बाहर खिसक चली
मैं नहींजानता कि कहां से वह आई या कहां उसे जाना है
मैं उसकी रवानगी को निहारता रहा महज़,
मैं वारसा के ब्रिस्टल होटल में ऊपरवली बर्थ पर सोया हुआ था
सालों से नहीं मयस्सर हुई थी इतनी गहरी नींद
हालांकि मेरा बिस्तर सँकरा और लकड़ी का था
दूसरे बिस्तर पर एक हसीन औरत सोई हुई
उसके बाल भूरे-सुनहरे
उसकी बरौनियां नीलगं
उसकी गोरी गरदन सुतवां रेशमी,
सालों से नहीं मयस्सर हुई थी उसे इतनी गहरी नींद
हालांकि उसका बिस्तर सँकरा और लकड़ी का था
वक़्त रफ़्तार में था ओर हम आधी रात के करीब थे,
सालों से नहीं मयस्सर हुई थी हमें इतनी गहरी नींद
हालांकि हमारे बिस्तर सँकरे और लकड़ी के थे,

चौथे तले से मैं सीढ़ियां उतर रहा हूं
लिफ्ट फिर ठप्प् !
आईनों में मैं सीढ़ियां उतर रहा हूं
मैं बीस हो सकता हूं सौ हो सकता हूं
वक़्त रफ़्तार में था और मैं आधी रात के करीब था,
तीसरे तल पर, एक दरवाजे़ के पीछे एक औरत हंस रही थी
एक उदास गुलाब धीरे-धीरे मेरे दाएं हाथ में खिला
दूसरे तल के बर्फानी दरीचों पर मेरी मुलाक़ात एक क्यूबानी बैलेरिना से हुई
किसी ताज़ा संगीन लौ के मानिंद मेरे माथे के पार कौंध गई वह,
शा’इर निकोलस गीय्येन (क्यूबा के महान राष्ट्रीय कवि) अरसा पहले हवाना वापस लौट गए
सालों हम यूरोप और एशिया के होटलों की लॉबियों में मिले रहे,
दो चीजें सिर्फ मौत के साथ ही भूली जा सकती है:
हमारी मांओं के चेहरे और हमारे शहरों के चेहरे,
जाड़े की अलस्सुबहों में काठ के बजरे तैरते हैं हवा में
खुद को बन्धनहीन कर चुकी पुरानी नावों की तरह,
और दो चीजें सिर्फ मौत के साथ ही भूली जा सकती है, किसी अँगीठी की
राख में नींद से जागता है मेरा इस्ताम्बुल

दो चीजें सिर्फ मौत के साथ ही भूली जा सकती है,
दरबान ने अपना लबादा रात में डुबोते हुए मुझे अलविदा कही
मैं झपट पड़ा बर्फानी हवा में और मैं आधी रात के करीब था:
यक-ब-यक छाप लिया उन्होंने मुझे
रोशनी दिन जैसी थी, मगर और किसी न नहीं देखा उनकी टुकड़ी को
उनकी पोशाक जैकबूट, पैण्टकोट
उनकी बाहों पर स्वस्तिका
उनके हाथों में दस्ती ऑटोमेटिक अस्लहे
उनके कंधों पर हेल्मेट, लेकिन सिर नदारद
वे उस किस्म के फौजी थे जिनकी मौत पर मातम नहीं होता
मैंने चलना जारी रखा
कोई भी देख सकता था उनका बनैला डर
मैं नहीं कह सकता कि उनकी आंखों में दिखा
सिर थे ही नहीं, कि आंखें होतीं
कोई भी देख सकता था उनका बनैला डर
उनके बूटों से झाँकता हुआ ।
क्या बूटों से झाँक सकता है ?
उनके बूटों से डर झाँक रहा था
डर से डरे हुए वे गोलियां दागने लगे
सारी इमारतों, सारी सवारियों, सारी जिं़दगियों पर
बिना रुके दागते रहें वे गोलियां
और हर आवाज़ पर कम से कम हरकत
उन्होंने शोपां स्ट्रीट पर नीली मछली वाले पोस्टर पर भी गोली दागी
मगर पलस्तर का एक टुकड़ा गिरने या दरीचा टूटने से ज्यादा
कुछ भी नहीं हुआ
मेरे सिवा किसी ने भी नहीं सुनी गोलियों की आवाज़
एक मुर्दा, वह एस.एस. दस्ता ही क्यों न हो,
एक मुर्दा कत्ल नहीं कर सकता
एक मुर्दा सेब के भीतर, एक कीड़े की शक्ल में
दोबारा वापसी के जरिए ही कत्ल करता है,
मगर कोई भी देख सकता था उनका बनैला डर
क्या उनसे पहले यह शहर कत्ल नहीं किया गया
एक-एक कर चकनाचूर नहीं की गई इस शहर की हड्डियां

नहीें उधेड़ी गई इसकेी चमड़ी
इसकी चमड़ी से किताबों की जिल्दें
इसके तेल से साबुन, इसके बालों से रस्सी नहीं बनाई गई?
मगर तब भी वह खड़ा था उनके सामने
बर्फानी रात के अधंड़ में गर्मागर्म पावरोटी के मानिंद,
वक़्त रफ़्तार में था और आधी रात के करीब था

बेलवेडियर रोड़ पर मुझे ख्याल आया पोलैंड के लोगों का
तवारीखी दास्तान वाला एक दिलेराना मजुर्का (एक लोक-आख्यान या पवाड़ा) उन्होंने पेश किया था
इस महल में उन्होंने मुझे मेरे पहले और शायद आखि़री तमग़े से नवाजा था
जलसे के सदर ने मुलम्मेदार सफ़ेद दरवाज़ा खोला
और मैं एक हसीन औरत के साथ दाखिल हुआ हाल में
उसके बाल भूरे-सुनहरे
उसकी बरौनियां नीलगूं और
हम दोनांे के सिवा कोई नहीं था वहां
आरपार झलमलाते पानी के रंगों वाली तस्वीरों
और डॉल फ़र्नीचर जैसी गुदगुदी कर्सियों और सोफ़ों के दरमियान
तुम पेस्टल रंगों वाली नीलगूं तस्वीर
या चीनी मिट्टी की गुड़िया सी नज़र आई
या शायद मेरे ख्वाब में से छिटकी एक फुलझड़ी
नुमूदार हुई मेरे सीने पर
तुम निचली बर्थ पर सोई हुई, धुँधली रोशनी में
तुम्हारी गोरी गर्दन संतवां और रेशमी
सालों से नहीं मयस्सर हुई थी तुम्हें इतनी गहरी नींद
और यहां क्राको (पोलैंड का एक शहर) के प्रिंस बार में
वक़्त रफ़्तार में है और हम आधी रात के करीब हैं,
अलहदगी दरअसल टेबुल पर थी
कॉफी के प्याले और मेरे गिलास के दरमियान
तुमने रखा उसे वहां
किसी पत्थर-कुएं की तल में झिलमिलाता पानी थी वह
झुक कर उस पर
झाँका मैंने भीतर
एक बूढ़ा आदमी किसी बादल की जानिब फीकी मुस्कान फेंकता
मैने आवाज दी
और मेरी ही आवाज़ वापस लौट आई मेरे पास
तुम्हारे बिना,
अलहदगी दरअसल टेबुल पर रखे सिगरेट के पैकेट में थी
वेटर गिलासों के साथ लाया था उसे, बेशक तुम्हारे आर्डर पर,
वह दरअसल तुम्हारी आंखों मंे छल्ले बनाता धुआं थी
तुम्हारे सिगरेट के सिरे पर थी वह दरअसल
और अलविदा कहने को इंतजार करते तुम्हारे हाथ में
अलहदगी दरअसल टेबल पर वहां थी
जहां तुम कोहनी टिकाए थी
वह दरअसल तुम्हारे दिमाग़ में चल रही उधेड़बुन में थी
जितना मुझ पर अपना खोला-जितना मुझसे अपना छिपाया, उसमें
अलहदगी दरअसल तुम्हारे सुकून में थी
मुझ पर किए गए भरोसे में
वह दरअसल किसी थके-चुके आदमी से इश्क़ करने के
तुम्हारे ख़ौफ में थी
जैसे तुम्हारे अपने वजूद का दरवाज़ा टूट गया हो
तुम दरहक़ीक्त मुझे इश्क़ करती हो
और इससे नावाक़िफ़ हो
अलहदगी दरअसल तुम्हारे नावाक़िफ़ियत में थी
कोई अपना वजन नहीं था अलहदगी का,
किसी पर-जैसी बेवजनी तो नहीं कह सकते
पर का भी कुछ ना कुछ वजन तो होता ही है,
अलहदगी का अपना कोई वजन नहीं था,
वक़्त रफ़्तार में है और आधी रात के करीब है
हम दरमियानी दौर कि सितारों को छूती दीवारों के साये में
आगे बढ़े
और वक़्त उल्टे रूख भाग चला
लौट पड़ीं हमारे द़दमों की आहटें पीली-मरियल; कुत्तों की तरह
भागते हुए हमारे आगे भी-हमारे पीछे भी,
शैतान पत्थरों में अपने नाख़ून गड़ाते हुए
यागीलोनियन यूनिवर्सिटी में घूम रहा है
आमादा है वह उस दूरबीन को तोड़ डालने पर
कोपेर्निकस ने अरबों से हासिल जो की थी
और चौक पर ’क्लॉथ आर्केड’ के जेरे-साए
वह रॉक-एन-रॉल करते कैथोलिक स्टूडेंट्स के साथ है,
वक़्त रफ़्तार में है और आधी रात के करीब है
’नोवा हुता’ की लाली बादलों को सुखऱ् कर रही है
और वहां गांवों से आए नौजवान कामगार
नए साँचोें में खैलते लोहे के साथ-साथ अपनी आत्माएं
भी ढाल रहे हैं
लोहा ढालने से हजार गुना मुश्किल काम है आत्माओं को ढालना,
सेंट मेरी चर्च के घंटाघर से, घंटा बजाने वाले ने
आधी रात होने की इत्तिला दी
दरमियानी ज़माने से उभरी उसकी आवाज़ ने
शहर को आगाह किया कि दुश्मन आ पहुँचा है
और ठीक उसी दम एक तीर उसके गले के आरपार हो गया
दम तोड़ दी मुनादीनवाज ने
और मैने कल्पना की
दुश्मन के आ धमकने की इत्तिला देने से पहले
दम तोड़ देने के दर्द की,
वक़्त रफ़्तार में है आधी रात को पीछे छोड़ता हुआ
अँधेरे में गुम हो चुके नाव-घाट की तरह,
सबुह के वक़्त बिना किसी इत्तिला के, एक्सप्रेस दाखिल हुई स्टेशन में
प्राग शहर पूरा बारिश में नहाया हुआ
झील की तली में चाँदी का एक जड़ाऊ संदूक
खोला उसे मैने
भीरत से नहीं मयस्सर हुई थी उसे इतनी गहरी नींद
मैने संदूक को बंद किया
और सामान-असबाब वाले डिब्बे में उसे रख दिया
बिना किसी इत्तिला के एक्सप्रेस स्टेशन के बाहर खिसक चली
बांहों को अगल-बगल लटकाए मैं देखता रहा उसे स्टेशन छोड़ते
प्राग शहर पूरा बाशि में नहाया अुआ
तुम यहां नहीं हो
सोई हुई हो तुम निचली बर्थ पर
धुँधली रोशनी में,
ऊपरली बर्थ खाली है
तुम यहां नहीं हो
दुनिया का एक खूबसूरत शहर ख़ाली है
हाथ निकाल लिए गए किसी दस्ताने की तरह,
अँधेरा घिर आया उन आईनों की तरह
जो कतई-कतई नहीं उभरते तुम्हारा अक्स
व्तावा का पानी गुमशुदा रातों की तरह
पुलों के नीचे गुुम होता हुआ
सड़कें गिरे हुए सभी रोशनदानों के
ट्रामें एकदम ख़ाली
ड्राइवर-कंडक्टर तक नहीं
काफी हाउस ख़ाली
रेस्तोरां और बार भी
दुकानों की शो-विण्डो ख़ाली है
कपड़े नहीं, बिल्लौरी शीश नहीं, गोश्त नहीं, शराब नहीं
न एक किताब, न एक कैण्डी बॉक्स, न एक फूल
और धुंध की तरह शहर को लपेटे इस अकेलेपन में एक बूढ़ा आदमी
लीजनायर्स ब्रिज से समुद्र परिंदों को रोटी गिराते, हर निवाले को
अपने बहुत नौउम्र दिल में डुबोते हुए, अकेलेपन के जरिए दस गुनी बदतर
बना दी गई अपनी उम्रगत उदासी को परे झटकने की कोशिश करता हुआ
मैं उन लम्हों को जा पकड़ना चाहता हॅूँ
उनकी रफ़्तार की सुनहरी गई मेरी उंगलियों पर ठहरी हुई है
एक औरत स्लीपर क्लास की निचली बर्थ पर सोई पड़ी है
सालों से नहीं मयस्सर हुई उसे इतनी गहरी नींद
उसके बाल सुनहरे पुआल जैसे
उसकी बरौनियां नीलगं
उसके हाथ चाँदी के शमादानों में रोशन शम्एं
मैं नही देख सकता कि ऊपरली बर्थ पर कौन सोया हे
अगर कोई हो, तो वो मैं नहीं होऊंगा
शायद ऊपरली बर्थ ख़ाली हो
शायद मॉस्को हो ऊपरली बर्थ पर
पोलैंड पर धुंध जमी हुई है
ब्रेस्ट पर भी धुंध जमी हई है
अगले दो दिन तक जहाज़ न उतर सकते है न उड़ा नही भर सकते हैं
लेकिन ट्रेनों का आना-जाना बदस्तूर जारी है
खोखली आंखों से होकर जाती हैं वे
बर्लिन से अकेला था मैं डिब्बे में
अगली सुबह बर्फ़ीले इलाक़ों में धूप से मुख़ातिब मैं जगा
डाइनिंग कार में ’काफिर’ (दही-चीनी से बना एक पेय) नाम का एक पेय पेश किया गया
और पेश करने वाली ने मुझे पहचान लिया
मॉस्को में उसने मेरे दो ड्रामे देख रखे थे,
स्टेशन पर मेरी मुलाका़त एक हसीन औरत से हुई
उसकी कमर चींटी की कमर से भी पतली
उसके बाल भूरे-सुनहरे
उसकी बरौनियां नीलगं
उसका हाथ मैेने अपने हाथ में लिया और हम चल पड़े
धूप खिली हुई थी और हमारे पैरों के नीचे
बर्फ़ चर्रचर्र टूट रही थी
उस साल बहार की आमद जल्दी हुई थी
उन दिनों उन्होंने खबरों को शुक्र तारे तक फहराया
मॉस्को खुश था, मैं खुश था, हम खुश थे
अचानक मायोकाव्सकी स्क्वायर पर मैंने तुम्हें खो दिया
अचानक खो दिया तुम्हें मैंने, नहीं अचानक नहीं, क्योंकि
पहले मैंने अपने हाथ में तफहारे हाथ की गर्मी खोई, फिर
अपनी हथेली पर तुम्हारे हाथ का मुलायम वज़न और तब
तुम्हारा हाथ
और अलहदगी की शुरूआत बहुत पहले
अमारे उंगलियों की पहली छुअन के साथ ही हो गई थी
तब भी अचानक खो दिया मैंने तुम्हें!
डामर के समंदर में मैने कारों को रोका और झाँककर भीतर देख
तुम वहां नहीं थी

आम रास्ते पूरी तरह बर्फ़ से पटे हुए
उन पर उभरे पैरों के निशानों में तुम्हारे निशान नहीं थे
बख़ूबी वाक़िफ़ हूं मैं तुम्हारे नक्शे-पा से
जूते-मोजे में या नंगे पैरों, सभी तरह के,
संतरियों से दर्याफ़्त किया, तुमने तो नहीं देखा?
अगर वह दस्ताने उतारे ले, तो तुम नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते उसके हाथ
जैसे चाँदी के शमादान में शम्एं !
संतरियों ने बहुत आहिस्ते जवाब दिया ’हमने तो नहीं देखा.....’
इस्ताम्बुल में सेराग्लिों पॉइट पर फुफकारती लहरों के
मुक़ाबिल एक टगबोट
उसके पीछे तीन बजरे
आक्-आक् करते गुज़रते हुए समंदरी परिंदे
रेडस्क्वायर से मैंन बजरों को आवाज दी, टगबोट के कप्तान को
आवाज़ नहीं दी मैने
इंजिन के शोर में उसने सुना ही न होता, अलावा इसके वह थका
हुआ था और उसके कोट में बटन नहीं थे
’हमने तो नहीं देखा’
उठ खड़ा हुआ मैं-मॉस्का को सभी सड़कों
सभी रास्तों पर खड़ा हूूं मैं
और सिर्फ औरतों से दर्याफ़्त करता हूं
ऊनी बाबुस्का में मुस्कुराते चेहरों वाली सादा और सहनशील औरतें
हर मखमली हैटों में तीखी नाक और गुलाबी गालों वाली जवान औरतें
और जवानी की दहलीज की जानिब आहिस्ता-आहिस्ता क़दम
बढ़ा रही साफ-शफ्फा़फ् दोशीजाएं,
शायद डरावनी बूढ़ी औरते थकी-चुकी जवान औरतें और बेढंगी छोकरियां
भी...
लेकिन उनकी परवाह कौन करता है!
औरतें मर्दो से पहले खूबसूरती को ताड़ लेती है और भूलतीं नहीं:
’तुमने तो नहीं देखा...
उसके बाल भूरे-सुनहरे
उसकी बरौनियां नीलगं
उसका कोट काले रंग/सफ़ेद उसके कॉलर/बड़े-बड़े मोतिया बटन उसमें
टैके हुए
प्राग में ख़रीदा था उसने वह कोट,
’हमने तो नहीं देखा’
अब मैं लम्हों के साथ दौड़ रहा हूं-अभी मुझसे आगे-अभी बराबर
जब जागे, तो मैं ख़ौफ़ से भर उठता हूं कि हब वे लाल बत्तियों को गुल
कर देंगे और मैं अंधा हो जाऊंगा
जब मैं आगे, तो उनकी हेडलाइटें मेरी परछाई सड़क पर डालती हुई और
वह मुझसे आगे भागती रहती है और अचानक मैं ख़ौफ़ से भर उठता हूं
कि वह मेरी नज़रों से गुम जाएगी
मैं थियेटरों, सिनेमाघरों, मुसीकी महफ़िलों में जाता हूं
बोलशोई में बेशक मैं दर्याफ़्त नहीं करता, आजा का ऑपेरा तुम्हें पसंद नहीं
मैं इस्ताम्बूल के फिशरमैन बार में गया और सैत फाइक (तुर्की का अफ़साननानिगार) के साथ
खुशगप्पियां करता बैठा रहा
मुझे जेल से बाहर आए महीना ही हुआ था कि वह दर्दे-जिगर पाल बैठा
और दुनिया खूबसूरत थी
मैं पीतल के चमचमाते बाजों से सजे मशहूर आर्केस्ट्रा वाले रेस्तोरां मंे
जाता हूं
सुनहरी कामदार पोशाकों वाले दरवानों; महज टिप की चाहत वाले
बेमुरव्वत वेटरों, ग्राहकों की हैटों और कपड़ों की तलाशी लेने वाली
लड़कियों से पूछता हूं
-’हमने तो नहीं देखा’
स़़्त्रास्तनाई मॉनेस्टरी के क्लॉक टॉवर ने आधी रात का गजर बजाया
दरअसल टॉवर और मॉनेस्टरी बहुत पहले तोड़ डाले गए थे
और अब वहां शहर का सबसे बड़ा सिनेमा घर बनाया जा रहा है
वहां मेरी मुलाकात मेरे उन्नीसवंे साल से हो गई,
ज़माने से दोनों ने एक-दूसरे को नहीं देखा था,
तब भी देखते ही दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया
हमें कोई हैरत नहीं हुई और हमने हाथ मिलाने की कोशिश की
लेकिन चूंकि हामरे बीच चालीस सालों का वक्फ़ा अड़ा खड़ा था
हमारे हाथ एक-दूसरे को छू नहीं पाए,
एक बेपायां जमा हुआ उपरी सागर
और उसने अब पुश्किन स्क्वायर के तौर मशहूर स़्त्रास्तनोई में बर्फ़बारी शुरू
कर दी,
मैं ठिठुर रहा हूं खासतौर से मेरे हाथ और पैर
हालांकि मेरे हाथ दस्तानों में और पैर ऊनी जुराबों-फर वाले जूतों की
हिफाजत में हैं
उसके हाथ बिना दस्तानों के और पैरों में जुराबों की बजाये चीथड़े लिपटे हुए
और जूते भी पुराने
यह दुनिया उसके मुंह में हरे सेब के स्वाद जैसी
और हाथों में किसी चौदहसाला दोशीजा की छातियांे का अहसास
मीलों-मीलों तक गूंजते नग़मे, उसकी आंखों में मौत की औक़ात बालिश्त
भर की
और कोई अंदाजा नहीं की क्या-कुछ गुज़रेगा
उस पर सिर्फ मैं जानता हूं क्या कुछ गुज़रेगा
क्योंकि मैं उस सब पर यक़ीन करता था जिस पर वह करता है
उन सारी औरतों के साथ मैंने इश्क़ किया जिनसे वह करेगा
वे सारी ऩज्में मैने लिखी जो वह लिखेगा
उन सारे कैदख़ानों में मैं रहा जिन में में वह रहेगा
उन सारे शहरों से होकर मैं गुज़रा जिनसे होकर वह गुज़रेगा
उसकी सारी बीमारियां मैंनें झेलीं
उसकी सारी रातें मैंने सोई, उसके सारे सपने मैंने देखे
वह सब कुछ मैंने खोया जो वह खोएगा....
’उसके बाल भूरे सुनहरे, उसकी बरौनियाँ नीलगं
उसके काले कोट पर सफ़ेद कॉलर और बड़े-बड़े मोतिया बटन!...
-’हमने तो नहीं देखा’
मेरा उन्नीसवां साल बेजित चौक को पार कर
लाला चौक पर नुमूदार होता है और नीचे कांकर्ड की तरफ़
उतर जाता है
अबिदीन (तुर्की का आर्टिस्ट, जिसने नाज़िम की नई किताबों की तस्वीरें बनाई) से मेरी मुलाक़ात होती है
बीती परसों गागरिन ने सबसे बड़ी चौक का चक्कर लगाया और लौट आया
तितोव भी जाएगा और साढ़े सत्रह चक्कर लगाकर लौट आएगा
लेकिन मैं अब तक उसके बारे में नहीं जानता
अपनी होटल की परछती में मैं आबिदीन के साथ
फ़ासलों और शक्लों की बाबत बतियाता हूं,
और नोत्रदम के दोनो तरफ़ सीन बह रही है
रात के वक़्त मेरे दरीचे से सीन तारों के जहाज़ घाट पर चाँदनी की
चाँदी-सी नज़र आती है
और मेरी परछती में एक हसीन औरत सो रही है-सटी हुई पेरिस की
चिमनियों से
सालों से नही मयस्सर हुई थी उसे इतनी गहरी नींद
भूरे-रुनहरे उसके बाल बाल उसकी नीली बरौनियों को ऐसे गिरफ़्त में लिए हुए
जैसे बादल घिरे हों चेहरे पर
आबिदीन के साथ मैं एटम के बीज की शक्ल और उसे घेरने वाली जगह
की बात करता हूं
हम अंतरिक्ष में चक्करघिन्नी की तरह घूम रहे रूमी की बातें करते हैं
आबिदीन बेनिहायत रफ़्तार वाले रंगों से तस्वीरें बनाता है
मैं रंगों को फलों की तरह खा जाता हूं
और मातीस एक फलफ़रोश है/वह ब्रह्याण्ड के फल बेचता है
हमारे आबिदीन और अवनी-अवनी (अबनी अर्बास तुर्की आर्किस्ट) और लेवनी-लेवनी (ओटोमान काल का मीनियेचर आर्टिस्ट) की तरह,
और खुर्दबीनों, राकेट के मोखों से देखे जा संकने वाले फ़ासले, शक्लें और रंग
और अपने शहर, मुसव्विर और मुगन्नी
एक सौ पच्चास जर्बे साठ के स्पेस में आबिदीन वहशी लहरों की तरह
दीवानवार पेंट करता है
और जिस तरह मैं पानी में चमकीली-बिछलती मछलियों को देख और पकड़
पाता हूं
वैसे ही आबिदीन के कैनवास पर बहते चमकीले लम्हों को देखता और
पकड़ता हूं
और सीन नदी चाँदनी की चाँदी जैसी है
और एक हसीन औरत चाँदनी की चाँदी में सोई पड़ी है
कितनी बार मैंने उसे खोया है, कितनी बार मैने उसे पाया है
और...और कितनी बार मैं उसे खोऊंगा, मैं उसे पाऊंगा
इसी मानी में वह लड़की है, इसी मानी में वो वो है जो और कोई नहीं है
सें मिशे ब्रिज से मैंने अपनी ज़िंदगी का एक टुकड़ा सीन में छोड़ा
एक सुबह झिलमिल रोशनी में वह टुकड़ा
मोंसिए दुपों की कटिया की डोरी को पकड़ लेगा
मांेसियें दुपों पेरिस की नीली तस्वीर के साथ उसे पानी से खींच लेंगे
वह कुछ भी नहीं करेंगे मेरी जिंदगी का
वह किसी मछली या जूते जैसी नहीं होगी
तस्वीर वहीं ठहर जाएगी जहां वो थी
और मेरी ज़िंदगी का टुकड़ा सीन की लहरों के साथ बहता हुआ
नदियों के विशाल कब्रिस्तान में गुम हो जाएगा,
नसों मे खू़न की सरसराहट से मेरी आंख खुली
उॅँगलियां भारहीन
उँगलियां और अँगूठे तक़रीबन टूटकर अलग हो जाने
और हवाखोरी करते हुए आहिस्ते-आहिस्ते सिर पर मँडराने को आमादा
न दाएं-बाएं न ऊपर-नीचे
मुझे आबिदीन से कहना चाहिए कि वह बेजित चौक पर मारे गए छात्रों
की तस्वीरें बनाए
और कामरेड गागरिन-कामरेड तितोव की,
जिनकी शोहरत से, नाम या चेहरे से मैं वाक़िफ़ नहीं हूं
और जिन्हें उसके बाद आना है उनकी
और परछाई में सोई पड़ी हसीन औरत की....
इसी सुबह मैं क्यूबा से वापिस आया
उस जगह, जो कि क्यूबा है, साठ लाख गोरे-काले-पीले और मुलट्टो
एक चमकीला बीज, याने के बीजों का बीज, ख़ुशी से भरकर बो रहे हैं
क्या तुम खु़शी की तस्वीर बना सकते हो, आबिदीन?
मगर रिवायतन नहीं -
फ़रिश्ते जैसे चेहरे वाली मां अपनी गुलाबी गालों वाली बच्ची को गोद में
झुलाती हुई नहीं
न सफ़ेद मेज़पोश पर सेब
न ही मछलीघर में बलबुलों के बीच किलोलें करती सोनमछली...
ख़ुशी की तस्वीर बना सकते हो, आबिदीन?
बना सकते हो 1961 की भरी गरमियों में क्यूबा की तस्वीर
’’मुबारक हो मुबारक हो वो दिन जो मैंने देखा! अब मैं मर सकता हूं बिना
किसी अफ़सोस के’-इस तराने की तस्वीर बना सकते हो, उस्ताद!
और इस जज्ब़े की-कि ’सद अफ़सोस, सद अफ़सोस! आज की
सुबह मुझे हवाना मं पैदा होना चाहिए था....
मैंने एक हाथ को देखा हबाना से डेढ़ सौ किलोमीटर पूर्व में
समन्दर से सटा हुआ
एक हाथ देखा मैंने दीवार पर
दीवार एक दीवानावार नग्म़ा थी
हाथ ने दीवार को चूमा
हाथ छह मीने का था और उसने अपनी मां की गरदन को सहलाया
वह पच्चीस का था और अब भूल चुका था चूमना
और अब तीस का था और मैंने उसे हवाना से डेढ सो किलोमीटर पूर्व में
समंदर से सटी एक दीवार पर देखा, दीवार को चूमते हुए
आबिदीन, बनाओ उन हाथों की तस्वीर जो हमारे कामगारों के हैं
खरादियों के हैं
बनाओ चारकोल से क्यूबाई मछुआरे निकोलस का हाथ
जिसने को-ऑपरेटिव से मिले चमकीले घर की दीवार पर
फिर से याद किया चूमना....और अब आगे भूलेगा नहीं,
एक लम्बा-चौड़ा बालिग हाथ
किसी समंुदरी कछुए जैसा
वह हाथ जिसे यक़ीन नहीं था कि किसी खुली-फैली दीवार को चूम पाएगा
वह हाथ अब जिसका सभी खुशियों में यक़ीन है
वह खुशमिज़ाज नमकीन और पाक हाथ
उम्मीदों भरा वह हाथ, जो फीदेल (क्यूबाई क्रान्ति के अगुवा नेता फीदेल कास्त्रो) के शब्दों जैसी उपजाऊ जम़ीन में से
अँखुआता और गन्ने की-सी रफ़्तार से मिठास से भर उठता है
उन हाथों मेंसे एक हाथ, जो 1961 के क्यूबा में सब्ज़ और पुरसुकून
दरख़्तों की भांति
घरों को और आरामदेह घरों की भांति दरख़्तों को रोंपते हैं
इस्पात उँडलने को तैयार हाथों में से एक हाथ
वह हाथ जो मशीनगनों के नग़्में और नग़्मों की मशीनगनें बनाता है
वह हाथ जो सच्ची आज़ादी का हाथ है
वह हाथ जो फीदेल ने लहराया
वह हाथ जो अपनी जिंदगी की पहली पेंसिल से
अपनी ज़िंदगी के पहले कागज़ पर लिखता है लफ़्जे-आज़ादी ।
वे जब ’आज़ादी’ लफ़़्ज होठों पर लाते हैं,
तो क्यूबाईयों के मुंह में पानी आने लगता है
मानों वे तरबूज-से शहद की फाँक तराश रहे हों
और इंसानों की आंखें चमक उठती हैं
और लड़कियां पिघल उठती है जब आज़ादी लफ़्ज उनके लबों को छूता है
और बूढ़े अपनी सबसे मीठी यादें कुएं से खींचते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता उसकी चुस्कियां लेते हैं
ख़ुशी की तस्वीर बना सकते हो, आबिदीन?
पेरिस में रात घिर रही है
नोत्रदम किसी नारंगी चिराग़ की तरह खिला और बुझ गया
और पेरिस में नये-नये सभी पत्थर नारंगी चिराग़ की तरह खिले और बुझ गए
मैं अपनी फ़नकारी, यानी शा’इरी, तस्वीरकशी, मुसीकी वगैरह के कारोबार
की बाबत सोचता हूं
सोचता हूं और जानता हूं
कि पहले इंसानी हाथ ने पहली गुफ़ा में पहले कद्दावर साँड की तस्वीर जब बनाई
तभी से एक विशाल नदी बह रही है
और फिर सारे चश्मे अपनी नई मछलियों, नई जलघासों, नई लज्जतों के
 साथ उससे जा मिलते हैं और अकेली वही नदी बहती रहती है अंतहीन...
और कभी सुखती नहीं...

मैंने सुना हे कि पेरिस में एक चेस्टनट का दरख़्त है
पेरिस की ज़मीन पर उगा पहला चेस्टनट,
यानी कि पेरिस के सारे चेस्टनट दरख्तों का दादा
वो इस्ताम्बूल की बोस्पोरस पहाड़ियों से आया और पेरिस में जम गया
नहीं जानता कि वह अब तक सही सलामत है भी!
हुआ तो दो सौ साल का होगा
ख़्वाहिश है कि मैं जाकर उससे हाथ मिला सकंू
ख़्वाहिश है कि हम जाकर उसके साए में लेट सकें
हम, यानी कि वे, जो इस किताब में इस्तेमाल होने वाला कागज़ बनाते हैं
हरूफ़ बिठाते हैं, इसकी तस्वीरें छापते हैं, वे जो अपनी दुकानों में इस
किताब को बेचते हैं, और वे जो पैसा खर्च करके इसे खरीदते हैं और सफ़हे
पलटते है-पढ़ते हैं
और आबिदीन....और मैं भी, और भूरे-सुनहरे बालों वाली
मेरी वो ’मुसीबत’ भी।