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प्रेमचन्द / नज़ीर बनारसी

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मुफ़ालिसी थी तो उसमें भी इक शान थी
कुछ न था, कुछ न होने पे भी आन थी
चोट खाती गयी, चोट करती गयी
ज़िन्दगी किस क़दर मर्द मैदान थी
जो बज़ाहिर शिकस्ता-सा इक साज था
वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज था
राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुए
साम्राज्ञी से तेवर बदलते हुए
आ गये ज़िन्दगी के नये मोड़ पर
मौत के रास्ते से टहलते हुए
बनके बादल उठे, देश पर छा गये
प्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गये
अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत नहीं
सिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं
लाखों दिल एक हों जिसमें वो प्रेम है
दो दिलों की मुहब्बत मुहब्बत नहीं
अपने संदेश से सबको चौंका दिया
प्रेम न प्रेम का अर्थ समझा दिया
फ़र्द था, फ़र्द से कारवाँ बन गया
एक था, एक से इक जहाँ बन गया
ऐ बनारस तिरा एक मुश्ते-ग़ुबार
उठ के मेमारे हिन्दोस्ताँ बन गया
मरने वाले के जीने का अन्दाज़ देख
देख काशी की मिट्टी का ऐज़ाज <ref>करिश्मा</ref> देख

शब्दार्थ
<references/>