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परछाहीं / पढ़ीस

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बड़े ताल की दाँती के बिरवा के जिउका जिउ जागा।
देखिसि पानी की छाती पर वहे कि परछाँही पयिरयि।
अपनयि रूपु निहारि बिरउनू अपने मन ते कहयि लाग,
मयिं तउ मयिं, यिहु अउरू कउनु, जो म्वारयि अस महिका घूरयि ?
मयि जान्यउँ सबु जरि-भुँजि कयि अब हीरूयि-हीरू हिंयाँ रहिगा;
मुलु उयि हीरउ मा देख्यउँ कुछु-कुछु का, का सब कुछु चपटा।
बिरिछ राज तपु करयि लाग, नथुनन ते स्वाँसा साधि-साधि,
सबयि बयारिन मूड़ु लड़ावयिं कब लागयि उनकी समाधि।
पाला पर सिकुरयिं पानी मा, उस-उस दाँउॅ नहान करयिं,
सुर्जन <ref>सूर्य</ref> की आगी मा देंही फँूकि-फँूकि जपु ज्ञानु करयिं।
बिरऊ जस जस जोग करयिं, तस-तस सुँदरापा बाढ़ि रहा,
रस के लोभिन का उनहे तर र्याला लागि रहा।
झुण्ड-झुण्ड पंछी आवयिं पँखुरी-पातिन से खेलु करयिं,
भॅवरा चहुँदिसि नाचि-नाचि फूलन के मुँहि का चूमि लेयिं।
दिन का नखरा दूरि होयि जब राति अँध्यरिया घिरि आवयि,
परछाहीं छपट्यायि<ref>लिपटना</ref> रहयि, बिरऊ का जिउ कुछु कल पावयि।
मुलु जस फिरिते भेरू होयि, फिरि वहयि किंगिरिया वहयि रागु,
क्वयिली गीतु बुनावयि लागयिं, चलयि पपिहरा साजि साजु।
दिन, महिना, बरसयि क्यतनी सब आजु काल्हि मा बीति गयीं;
पर परछाँही साथु न छाँड़िसि बिरवा की दुरूगति भयी।
आखिर एकु अयिस दिनु आवा दुख-सुख का बन्धनु टूटि परा,
बिरवा आपुयि रूपु ताल की छाती पर भहरायि गिरा।
तालु बापु जी, अपनेलरिका का क्वॉरा <ref>वृत्त, गोल घेरा</ref> मा कसि लीन्हिनि,
खोलि करेजे की क्वठरी तिहिमा तिहका पउढ़ायि दिहिनि।
विरवा मुकुति पायिगा जब ते, तबते बुहु विद्याँह बनिगा,
परछाहिउँ का रूपु छाँह के साथयि पानी मा मिलिगा।

शब्दार्थ
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