दूर दूर तक फैला एक लंबा, ठंडा, उजला राजमार्ग
निश्शब्द, शांत तथा रहस्यमय
लंबी जैसे सावन की दुपहरी में
नभ-से ऊँचे सफेदे की छाया आकाश से बातें करती
जैसे सरो का पेड़ सायंकाल को अकेला खड़ा
या कोई बूढ़ा बुज़ुर्ग यौवन को लगाए गुहार
कारवानों को यह मार्ग अछिन्न और स्वप्नहीन
मदमस्त प्याले देकर भौरों की सी गति देता है
माघ की शीतलहर से वाद्य के स्वर भी जम जाते हैं
स्वर लहरियाँ लक्ष्यभ्रष्ट लौट आती है व्याकुल
देखो चारों ओर हिम के फाहे कैसे गिर रहे हैं
बिना आवाज़ किए शांत तथा रहस्यमय ढंग से
जैसे महबूब ने होंठ सिराए हों और सुंदर ‘अछपोश’ <ref>फूल</ref> चारों और खिल आए हों
या गाँव की गोरियाँ बहुत समय के बाद आज
सफ़ेद कपड़े पहने उत्सव मनाने चल पड़ी हों
जेसे कार्तिक की चाँदनी छिटक आई हो
रूपहली आभा छितर छितर गई हो
प्रकृत, पुरातन, वह हकलाता ‘मूसा’
समय का ऐसा भी चमत्कारी हाथ लिए हुए है
यह चमत्कारी हाथ अभिव्यंजना का,
जादूगर ‘सामरी’ के भुलंगों को कैसा हुआ था परोक्ष यह उपकार
दाग़ गोरे पर हो तो और बढ़ाता गोराई
बादलों के बीच निकल आए सूर्य जैसे मुँह धोकर
जिसने भी देखा उस मदमाती सुंदर ‘हित-तन को
उसके विरह का दाग़ ‘गुले लाला’ ने लिया
यह विरह का दाग़ बचा के चाहिए रखना
सीने में भी यह गोला उत्पन्न होना चाहिए
सीना आग से झुलसे तो क्या ग़म ?
मन्थन करके रक्तसागर का ले जाए जो कोई चाहे कुछ भी
पर नीलकंठ को है विषैली मदिरा ही बड़ी उपलब्धि
विष की मदिरा दूरिया को पाटती है
ठंड में अंग अंग को गर्माती है
जैसे तेज़धार वाली तलवार पर मलंग यों चले
कि ज्यों वसंत की हरियाली के बीच बढ़ा रहा हो कद़म
शरीर हल्का सरस सरस लगता
और सरे दुर्विचारों का अंत होता
अकेले, बिना साक्षी के, मशाल बिना
राही तब जाके कहीं अभ्यस्त हो जाते हैं
दूर फैली लंबी, ठंडी उजली सड़क के
ऐसा राजमार्ग जिस पर न कोई मील का पत्थर न कोई सराय
जिस पर समय चुप्पी साधे, न जिसका कोई आज न कोई कल
जिस पर न कोई गुलाब की पंखुड़ी न काँटे की नोक ही
जहाँ न उँगलियाँ दुखतीं न हथेली में लग जाती कोई सुगंध ही
न पलक की कोई भी झपक न पंख की फड़फड़ाहट
रूँधे वातावरण में खलबती मचाती
जहाँ न प्रकट हो तीक्ष्णता न भीतर रहे कोई गर्मी
न रेगिस्तान में किसी मृगजल का सपना रहे
रहे तो केवल एक कुछ नहीं, कुछ नहीं और कुछ नहीं