Last modified on 19 नवम्बर 2014, at 08:30

परम सुन्दर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:30, 19 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=धन्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

परम सुन्दर
आलोक के इस स्नान पुण्य प्रभात में।
असीम अरूप
रूप-रूप में स्पर्शमणि
कर रही रचना है रस मूर्ति की,
प्र्रतिदिन
चिर नूतन का अभिषेक होता
चिर-पुरातन की वेदी तले।
नीलिमा और श्यामल ये दोनों मिल
धरणी का उत्तरीय बुन रहे हैं
छाया और आलोक से।
आकाश का हृदय-स्पन्दन
तरु लता के प्रति पल्लव को झूला झुलाता है।
प्रभात के कण्ठ का मणिहार झिलमिलाता है।
वन से वनान्तर में
विहंगों का अकारण गान
साधुवाद देता ही रहता है जीवन लक्ष्मी को।
सब कुद मिल एक साथ मानव का प्रेम स्पर्श
देता है अमृत का अर्थ उसे,
मधुमय कर देता है धरणी की धूलि को,
यत्र तत्र सर्वत्र ही बिछा देता है
सिंहासन चिर-मानव का।

‘उदयन’
दोपहर: 12 जनवरी