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पुराना खंडहर घर और सूना दालान / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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पुराना खंडहर घर और सूना दालान
मूक स्मृति का रुद्ध क्रन्दन करता है हाय-हाय,
मरे दिनों की समाधि की भीत का है अन्धकार
घुमड़-घुमड़ उठता है प्रभात के कण्ठ में
मध्याह्न वेला तक।
खेत और मैदान में सूखे पत्ते उड़ रहे हैं
घूर्ण चक्र में पड़ हाँप रहे मानो वे।
सहसा काल वैशाली
करती है बार बर्बरता का
फागुन के दिन जब जाने के पथ में हैं।

सृष्टि पीड़ा मारती है धक्के
शिल्पकार की तूलिका को पीछे से।
रेखा रेखा में फूट उठती है
रूप की वेदना
साथी हीन तप्त रक्तवर्ण में।
कभी-कभी शैथिल्य आ जाता है
तूलिका की चाल में;
पास की गली में उस चिक से ढके धुँधले आकाश तले
सहसा झमक उठती है संकेत झंकार जब
उंगलियों के पोटुओं पर
नाच उठता मदमत्त तब।
गोधूलिका सिन्दूर छाया में झड़ पड़ता है
पागल आवेग की
हवाई आशिबाजी के स्फुलिंग-सा।
बाधा पाती और मिटाती है शिल्पी की तूलिका।
बाधा उसकी आती कभी हिंसक अश्लीलता में,
कभी आती मदिर असंयम मेें।
मन में गँदले स्रोत की ज्वार फूल-फूल उठती है,
बह जाती है फेनिल असंलग्नता।
रूप से लदी नाव
बहा ले चली है
रूपकार को
रात के उलटे उजान स्रोत में
सहसा मिले घाट पर।
दाहने और बायें
सुर बेसुर डाँड़ मारते झपट्टा हैं,
ताल देता चलता है
बहने का खेल शिल्प साधना का।

शान्ति निकेतन
25 फरवरी, 1941