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सुबह के हाथ अपनी शाम / किशोर काबरा

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ज़िंदगी की राह चलते थक गया हूँ,
साँस को कुछ मौत का विश्राम दे दूँ।

मैं ज़रा भी राह का हामी नहीं था,
खूब भरमाया तुम्हीं ने दे सहारा।
जब कभी भी कंटकों में डगमगाया,
आस-झाडू से तुम्हीं ने पथ बुहारा।
डेढ़ गज़ मरघट ज़रा तुम साफ़ कर दो,
मैं कफ़न औ' लकड़ियों के दाम दे दूँ।

उम्र की कुछ चाह भी मुझको नहीं थी,
सुन नहीं पाया किसी कहते जवानी।
हाँ, रुदन की महफ़िलें तो बहुत देखीं,
आँख की मैं सुन चुका भीगी कहानी।
तुम हृदय की प्यालियाँ कुछ थाम लेना,
मैं अधर को आँसुओं के जाम दे दूँ।

मौत ने कुछ कफ़न बाँटे बस्तियों में,
कुछ चिता से लकड़ियाँ मैं खींच लूँगा।
ज़िंदगी में मिल न पाई दो गज़ी भी,
आज कुछ लज्जा-वसन से तन ढकूँगा।
तुम ज़रा-सा वक्त का शीशा दिखाना,
हडि्डयों को कुछ सुनहरा नाम दे दूँ।

सोचता हूँ फिर चिता यदि जल न पाई,
दूर पहले सिसकते अरमान कर दूँ।
मरघटों का शून्य आकर अधजला दिल
छीन लेगा, इसलिए मैं दान कर दूँ।
तुम ज़रा गंगाजली का मुँह झुकाना,
मैं सुबह के हाथ अपनी शाम दे दूँ।