क्या तुम मुझे जानते हो दोस्त
मैं इन गुमनाम शब्दों की तरह
बंद हूं किताबों में
मैं नहीं जानता
ये कब खोली और पढ़ी जाएंगी
मैं सिर्फ़ सांस लेता हूं
बंद समुद्र की तरह
तुम क्यों आते हो
इस को लेकर हमेशा बेचैन रहता हूं
नहीं जानता
एक किताब, कवि और हमारा संबंध
किस तरह है ?
होता यह है जब घर से निकलता हूं
सड़कों पर चलती छायाएं
घेरती हैं मुझे
मैं सब से बातें नहीं कर पाता
मैं बचाता हूं ख़ुद को
और लिखता हूं वे शब्द
जिन्हें लिखना-
हमेशा से दखल देने
और ज़ोख़िम से भरा रहा है
जबकि यह बहिष्कार है
या मेरे कमज़ोर सरोकार की अल्प सीमाएं
इस तरह
मैं बचता हूं कटघरे से
जहां एक नेता, अफसर, कर्मचारी को
जवाब देना होता है
अपने किए काम के बारे में
मैं चुप गुजर जाता हूं अंधेरों से होकर
मैं लिखता हूं
वे तमाम बातें
जिन्हें खुरचते-टोहते उखड़ते जाते हैं नाख़ून
मैं आता हूं अपना सभ्य चेहरा लिए
पीछे जो रह जाता है नकली और सतही
औरतें जानती हैं
दूर तक कोई स्थिति नहीं है
कि कोई आकर कवि से पूछे
उसके रोपे बीज
कितने सड़े और गले हैं
वह कितनी जगह से लौटा है
ख़ाली और अपराध से भरा
क्या है उन शब्दों की प्रमाणिकता
जो खाली देगची में
उबला करते हैं दिन-रात
क्या वह तैयार है जवाब के लिए ?
जब हमारे बीच कुछ नहीं होता तो
मैं यही सोचता हूं कि
पुल पार करते हुए
जल्दबाजी में छुट गई हैं वे पंक्तियां
जिनमें चंद लोग निकल गए हैं
बिना किसी आवाज़ के