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वियोग-वर्णन / सुजान-रसखान

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सवैया

फूलत फूल सवै बन बागन बोलत मौर बसंत के आवत।
कोयल की किलकारी सुनै सब कंत बिदेहन तें सब धावत।
ऐसे कठोर महा रसखान जु नेकुह मोरी ये पीर न पावत।
हक ही सालत है हिय में जब बैरिन कोयल कूक सुनावत।।232।।

रसखान सुनाह वियोग के ताप मलीन महा दुति देह तिया की।
पंकज सौ मुख गौ मुरझाय लगी लपटैं बरै स्‍वाँस हिया की।
ऐसे में आवत कान्‍ह सुने हुलसै सुतनी तरकी अंगिया की।
यों जन जोति उठी तन की उकसाय दई मनौ बाती दिया की।।233।।

बिरहा की जू आँच लगी तन में तब जाय परी जमुना जल में।
जब रेत फटी रु पताल गई तब सेस जर्यौ धरती-तल में।
रसखान तबै इहि आँच मिटे तब आय कै स्‍याम लगैं गल मैं।।234।।

बाल गुलाब के नीर उसीर सों पीर न जाइ हियैं, जिन ढारी।
कंज की माल करौ जू बिछावत होत कहा पुनि चंदन गारौ।
एते इलाज बिकाज करौं रसखानि कों काहे कों जारे पै जारौ।
चाहत हौ जु छिवायौ भटू तौ दिखाबौं बड़ी बड़ी आँखनवारो।।235।।

काह कहूँ रतियाँ की कथा बतियाँ कहि आवत है न कछू री।
आइ गोपाल लियौ भरि अंक कियौ मनभायौ पियौ रस कू री।
ताहि दिना सों गड़ी अँखियाँ रसखानि मेरे अंग अंग मैं पूरी।
पै न दिखाई परै अब बाबरी दै कै बियोग बिथा मजूरी।।236।।

कवित्‍त

काह कहूँ सजनी संग की रजनी नित बीतै मुकुंद कोंटे री।
              आवन रोज कहैं मनभावन आवन की न कबौ करी फेरी।
सौतिन-भाग बढ़्यौ ब्रज मैं जिन लूटत हैं निसि रंग घनेरी।
              मो रसखानि लिखी बिधना मन मारिकै आयु बनी हौं अहेरी।।237।।

सवैया

आये कहा करि कै कहिए वृषमान लली सों लला दृग जोरत।
ता दिन तें अँसुवान की धार रुकी नहीं जद्यपि लोग निहोरत।
बेगि चलो रसखान बलाइ लौं क्‍यों अभिमानन भौंह मरोरत।
प्‍यारे! सुंदर होय न प्‍यारी अबै पल अधिक में ब्रज बोरत।।238।।

गोकुल के बिछुरे को सखी दुख प्रान ते नेकु गयौ नहीं काढ़्यौ।
सो फिर कोस हजार तें आय कै रूप दिखाय दधे पर दाध्‍यौ।|
सो फिर द्वारिका ओर चले रसखान है सोच यहै जिय गाढ़्यौ।
कौन उपाय किये करि है ब्रज में बिरहा कुरुक्षेत्र को बाढ़्यौ।।239।।

गोकुल नाथ बियोग प्रलै जिमि गोपिन नंद जसोमति जू पर।
बाहि गयौ अँसुवान प्रवाह भयौ जल में ब्रजलोक तिहू पर।।
तीरथराज सी राधिका सु तो रसखान मनौं ब्रज भू पर।
पूरन ब्रह्म ह्वै ध्‍यान रह्यौ पिय औधि अखैबट पात के ऊपर।।240।।

ए सजनी जब तें मैं सुनी मथुरा नगरी बरषा रितु आई।
लै रसखान सनेह की ताननि कोकिल मोर मलार मचाई।
साँझ तें भोर लौं भोर तें साँझ लौं गोपिन चातक ज्‍यौं रट लाई।
एरी सखी कहिये तो कहाँ लगि बैर अहीर ने पीर न पाई।।241।।

मग हेरत धू धरे नैन भए रसना रट वा गुन गावन की।
अंगुरी-गनि हार थकी सजनी सगुनौती चलै नहि पावन की।
पथिकौ कोऊ ऐसाजु नाहिं कहै सुधि है रसखान के आवन की।
मनभावन आवन सावन में कहीं औधि करी डग बावन की।।242।।