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अनुप्राणित / दीप्ति गुप्ता

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प्यार में तेरे निखर गई, बन किरन सुनहरी बिखर गई
      
चाँद का उजला-उजला रूप,
सूरज की पुखराजी धूप,
अमिय भरे तेरे नयनो से, मुझ में आ के सिमट गई

परस तुम्हारा पाकर प्रेयस्,
आज बनी हूँ मैं पारस
पल भर का स्पर्श तुम्हारा, मैं कुंदन सी हो गई

आए जो तुम मधुमास बन
दहक उठी मैं अमलताश सम
प्रियतम ताप हरा जो तुमने, मैं चन्दन सी हो गई

बन बहार छाए तुम ऐसे,
मैं पुलकित पाटल के जैसे
ओ,अनुप्रास मेरे अर्चन के, मैं उपमा -रूपक हो गई

मेरे साजन! तुम फागुन हो ,
बहुरंगी उड़ती गुलाल मैं
पूनो की जुनली रातों में, खिल चम्पा सी, महक गई
         
उमड़े जब तुम मेघा बन कर ,
पुरवाई सी चलूँ मैं तन कर
तुम स्वाति बनकर जो बरसे, मैं मोती बन चमक गई

अनुरक्त हुए तुम कान्हा बनकर
मैं बंसी बन सजूँ अधर पर
तुम हो कूल नेह का मेरे, मैं गंगा सी पावन हो गई
           
तुम जो आए हो जीवन में ,
बनी समूची दुनिया बैरन
दूर हुए जब कभी पिया तुम, मैं निर्जीव राख सी हो गई

‘पियु-पियु’ टेर लगाई निस-दिन,
बौराई सी फिरती पल छिन
तुम क्या जानो मीत मेरे, मैं क्या से क्या-क्या हो गई

अनुप्राणन् तुम इन साँसों के ,
अनुप्राणित हूँ मैं प्रिय तुमसे
प्यार में तेरे सीझ-सीझ मैं, अमर बेल सम हो गई !