यह बात इतनी खास भी नहीं
मगर इतनी आम भी नहीं,
बताती हूं आपको
यह किस्सा-ए-मुख्तसर
आपने भी देखा होगा ये अक्सर
सड़क के किनारे या झाड़ियों-पेड़ तले मुंह किए या
किसी दीवार की तरफ चेहरा छिपाए
बहुत से मर्द
करते रहते हैं
लघु शंकाओं के दीर्घ निवारण।
कभी बेचारे तन्हा खड़े हो जाते हैं,
कभी दो-तीन मिलकर
पेंच-से-पेंच लड़ाते हैं,
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
बीच-चौराहे से
मौहल्ले-चौपाल तक
भरे बाजार से लेकर
अपने घर-ससुराल तक
जब देखो ‘वहां’ खुजाते रहते हैं,
क्या यह इस तरह से बार-बार
अपने पुरुषत्व का
भरोसा जुटाते रहते हैं?
और झिझकते भी नहीं!
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
हम औरतों की लघुश्ंाकाएं
बस शंकाएं बनी रह जाती हैं
अक्सर आसानी से नहीं मिलता
कोई ‘सुलभ’ ठीया, कोई मुकाम
और सब्र बांधे हो जाती है
सुबह से शाम, क्यांेकि
सब कहते हैं
औरतों की इज्जत होती है।
अगर हम जींस पहनें
तो किसी कॉलेज में,
बैन लगवा लेती हैं,
स्कर्ट-स्लीव्लेस में
‘आइटम’, ‘माल’
कहला लेती हैं,
नाइट शिफ्ट से लौटें तो
कुल्टा बन जाती हैं,
इस घर से उस घर तक की
पगड़ी का मान जुटाती हैं,
कर ले ंअगर
प्यार या मनमानी कभी
तो बीच चौराहे-चौपाल
बेसूत कर दी जाती हैं।
चलो, आपने समझाया
और हमने समझा
कि सारी मर्यादाएं और मान
हम ही से होती हैं और
इनके ठींकरें भी
हमीं ढोती हैं, पर
क्या पुरुषों की इज्जत
वाकई नहीं होती?