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भरत-भूमि / शम्भुनाथ मिश्र

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थीक भरतक भूमि ई सब क्यौ बुझै छी
देश कोमहर जा रहल नहि क्यौ जनै छी

स्वार्थकेर छी चाशनीमे गेल पागल
त्याग ओ विश्वास सबहक दूर भागल
पेट टा कुड़िया रहल छी राति दिन सब
किन्तु नहि से भरि रहल सब क्यौ जनै छी

विश्वमे आतंक अछि सबठाम पसरल
आसुरी-संस्कार-मूलक आगि धधकल
देशकेँ चाही सजग नेतृत्वकर्त्ता
छी सुरक्षित वा न क्यौ, से नहि जनै छी

विश्व जनमतकेँ जुटयबा मे जुटल छी
किन्तु अपनासँ स्वयं अपने कटल छी
सापकेँ कतबो खुअयबै दूध लाबा
बेर पर डँसबे करत सब क्यौ जनै छी

अपहरण हत्या बढ़ल चोरी डकैती
काजमे भऽ गेल अछि सब ठाँ ठकैती
विश्वमे सर्वोच्च बनबाकेर सेहन्ता
पूर होयत वा न से नहि क्यौ जनै छी

पाप ओ अन्यायकेर बिरड़ो उठल अछि
त्याग मर्यादाक बलि पहिनहि चढ़ल अछि
धर्म संस्थापन पुनः करबाक खातिर
होइत छनि अवतार कहिया के जनै छी?