पिला दे जाम ज़रा मुल्क के मयख़ाने की,
फिर ज़रूरत न रहे साक़िया पैमाने की।
मसरूर आंखों में वो रंग गुलाबी आए,
मस्त बहके जो अदा देख ले मस्ताने की।
निसार मुल्क की खि़दमत में जां अगर हो मेरी,
फिर तमन्ना न मुझे दैरे हरम जाने की।
जुल्मे ज़ालिम से परेशान, मुज़्तरिब थे हम,
चर्ख़ तुझको क्या पड़ी है मेरे बहलाने की।
क़फ़स में करके मुझे यों न धमकियां दे तू,
याद कर ले मेरे नालों में असर आने की।
सितम की तेगे़ जफ़ा सुर्ख़ फ़ाम है अरमां,
हवस है दिल की शहादत पे ख़ू बहाने की।
रचनाकाल: सन 1931