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प्रभो / मुकुटधर पांडेय

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प्रभोः मैं शरण हूँ शरण हूँ शरण
करो शीघ्र मेरे दुःखों का हरण

नहीं देखता अन्य आधार मैं
गहो हाथ निराधार मैं।
सुखों में तुम्हें भूल जाते नहीं
व्यथा व्यर्थ तो लोग पाते नहीं
फिर! यह जगत सिर्फ है नाम का
न कोई किसी के काम का।

छिड़ी सब कहीं स्वार्थ की बात है
लगा एक पर अन्य का घात है
जहाँ मैं गया स्वार्थ का गुल खिला
न कोई मुझे हाय! अपना मिला।
जगत से हुई निराशा मुझे
तुम्हारी सदा एक आशा मुझे

किया क्या न मैंने महा पाप है
उसी के लिए क्या न सन्ताप है।
न क्या ज्ञान की ओट अज्ञान था
न जरा भी दुःकर्म का ध्यान था
करो शीघ्र मेरे दुःखों का हरण
प्रभो! मैं शरण हूँ शरण हूँ शरण।