देखकर प्रिय को पड़ा त्रयताप में,
वेदना होती हृदय-धन को महा।
शोक-विह्वल वह कराह-कराह कर,
आँसुओं की धार देता है बहा॥
या सह न सकता न कर उस तापको,
हाय! प्रेमी का हृदय हिम-खण्ड है।
हो स्वयं संतप्त और पसीज कर,
ढालता वह, अश्रु-वारि अखण्ड है॥
क्या हृदय-नभ के गिराकर, ओस-कण
नेत्र कमलों के भरे ये गोद हैं?
यों बढ़ा करके सहज सौन्दर्य को,
स्वर्ण में लाया सुखद आमोद है॥
या हृदय यह मुक्ति-साधन को हुआ
विष्णु पद समभव-जलधि का पोत है?
है जहाँ से आँसुओं के रूप में,
बह रहा यह सुरसरी का स्रोत है॥
या हृदय निःसीम सागर-गर्भ है,
विपुल जल की राशि जिसमें है भरी?
है जहाँ से लोचनों की राह से
निकलती अनमोल मोती की लड़ी॥
प्रेमियों के हृदय सागर से कढ़े
यत्न से इन मोतियों को।
जो बनाता हार अपने कण्ठ का,
भाइयों! है विश्व में वह धन्य नर॥
-सरस्वती, दिसम्बर, 1916