खोज में हुआ वृथा हैरान,
यहाँ ही था तू हे भगवान!
गीता ने गुरु ज्ञान बखानाद्ध
वेद-पुराण जन्म भर छाना,
दर्शन पढ़े, हुआ दीवानाद्ध
मिटा नहीं अज्ञान।
जोगी बन सिर जटा बढ़ाया;
द्वार-द्वार जा अलख जगाया;
जंगल में बहुकाल बिताया
हुआ न तो भी ज्ञान।
ऊषा-संग मंदिर में आया;
कर पूजा-विधि ध्यान लगाया;
पर तेरा कुछ पता न पाया;
हुआ दिवस अवसान।
अस्ताचल पर हँसकर थोड़ा,
दिनकर ने अपना मुख मोड़ा;
विहगों ने भी मुझ पर छोड़ा,
व्यंग्य-वचन के बाण।
विधु ने नभ से किया इशारा-
अधोदृष्टि करके धु्रव तारा
तेरा विश्व-रूप-रस -सारा
करता था नित पान।
हुआ प्रकाश तमोमय मग में;
मिला मुझे तू तत्क्षण जग में
तेरा हुआ बोध पग-पग में
खुला रहस्य महान।
दीन-हीन के अश्रु-नीर में,
पतितों की परिताप-पीर में,
संध्या के चंचल समीर में
करता था तू गान।
सरल-स्वभाव, कृषक के हल में,
पतिव्रता-रमणी के बल में,
श्रम-सीकर से सिंचित धन में,
संशय रहित भिक्षु के मन में
कवि के चिन्ता-पूर्ण वचन में
तेरा मिला प्रमाण।
वाद-विहीन उदार धर्म में,
समता-पूर्ण ममत्व-मर्म में,
दम्पति के मधुमय विलास में
शिशु के स्वजोत्पन्नहास में,
वन्य कुसुम के शुचि सुवास में
था तब क्रीड़ा स्थान।
देखा मैंने-यहीं मुक्ति थी;
यहीं भोग था; यहीं मुक्ति थी;
घर में ही सब योग-युक्ति थी;
घर ही था निर्वाण।
-सरस्वती, दिसम्बर, 1917