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अकेला / मुकुटधर पांडेय

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दो घड़ी केवल बिताई द्वार पर मैंने तुम्हारे
चिर-सखा चिर बन्धु से तुम बन गये क्यों प्राण प्यारे
ज्ञात सी मुख छवि तुम्हारी, बस गई मन में नयन में
चारु चितवन ने हृदय में, कर लिया घर एक क्षण में।
मैं बिका बेमोल सा, जादू भरा यह कौन मेला
बेखबर इतना कि भूला, दूर मंजिल मैं अकेला
किसलिए तुमने बरौनी पर सुभग मोती पिरोये
शुभ्र ये कैसे हुए, ये तो हृदय के रक्त धोए।
देखना गिरने न पावे, आँख में इनको सम्हालो
मोल आंकेगा न कोई, भूमि पर इनको न डालो
चाह पूरी हो न पाई, आ गई चिर विरह बेला
बेखबर इतना कि भूला, दूर मंजिल मैं अकेला।