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शिकार / प्रकाश मनु

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वहां गया
तो वे पहले से थे तैयार
हाथों में फुलमालाएं
होंठों पर चौड़ी चिकनी मुसकान...

देखा मुझे तो खुश हुए बहुत
जैसे बहुत दिनों बाद देखा हो आदमी
-आओ, आओ...
तुम्हारा ही इन्तजार था, दोस्त!

मेरा-यानी सचमुच?
मैं चौंका!
हां, हां...तुम्हारा
देखो ये फूल मालाएं
ये खिताब उपाधियां चांदी के कप, चमकता मुकुट
यह खाली आसन...

वे दिखाते गए एक के बाद एक/फिर बोले-
हमें एक राजा चाहिए
नहीं, राजा नहीं
एक मूर्ति चाहिए फूल चढ़ाने के लिए
तुम आए हो सही समय पर
तो स्वीकारो फूल, किसम-किसम के फूलों की हसीं दुनिया

मैंने देखा फूल ही फूल
पूरा एक पहाड़ था मेरे आगे
खुशबुओं पर खुशबुएं उगलता/लिसलिसाता इस कदर
कि सांस लेना मुश्किल...
मैं चिल्लाया-
नहीं, मगर मैं...
मैं तो इन फूलों से दबकर
मर जाऊंगा...
जिन्दा कैसे रहूंगा?

तो वे हंसे-
हां, ठीक कह रहे हो तुम
ठीक-ठीक यही तो चाहते हैं हम
कि दबो रहो तुम, तुम्हारी कविताएं...
...मगर चिन्ता क्या
फूल तो महकेंगे ही धरती पर
फिर जरूरत क्या कविताओं की?

नहीं नहीं नहीं
भागा मैं-
भागता चला गया कई कोस
जैसे-तैसे पहुंचा घर
मगर सांसों में अब भी थी भब्भड़...
गहरी भगदड़

अगले दिन अखबार में
एक आदमी की मौत की खबर थी
वह फूलों से दबकर मर गया
जब वह मरा
आसपास लोग थे
ज्यादातर दोस्त
बजा रहे तालियां!!

मैं उदास-
फेरा कनपटी पर हाथ,
यकीन नहीं हुआ-
क्या सचमुच हूं जिन्दा
सचमुच और पूरा?