सिर में कीलें
कई गाड़ दी गई हैं बेमालूम
कंधों पर आग के पिंड खौफनाक
कि जो दिखाई नहीं देते
और तड़प भीतर दिल के रस्ते
कहीं उतरती है-
अजनबी सुरंग में!
और उसे छोड़ दिया गया है सड़क पर
-नहीं-फेंक दिया गया है भीड़ में
दुकानां मकानों चेहरों और कानूनी किताबों
की कवायद के आगे।
इन दुकानों मकानों कानूनी चेहरों के
सामने वह आता जाता है सिर्फ
सिर्फ होता गुजरता है वह वहां
जहां अंटी संभाले मुस्कराते लाले
एक-दूसरे की आंख को छुपी आंख मारते
उसे देखते हैरान होते हैं!
वे सोच-सोच कर हैरान होते हैं-
कि यह कभी मुस्कराता नहीं
कभी कोई फिल्मी आधी अधूरी लाइन गाता नहीं-
कभी नहीं नमकीन स्वाद लेता मजाक का
यों ही कहीं आता जाता
-नहीं, आता जाता नहीं, झल्लाता फिरता है!
-अजब मनुष्याकार...
वह क्या है,
वह क्यों है-
कौन है वह नामालूम नामाकूल...?
फिर परेशानी से पेशानी से पसीना पोंछते
अपनी अपनी अंटियों
में घुस जाते हैं लोग
घड़ी की टिक टिक के साथ चिपके-
और जान नहीं पाते कि...
कौन है यह जिन्दगी का जिन्दा
प्रेत-रूप?
प्रिय पाठक
वह क्या है वह क्यों है
वह कौन है नामाकूल
नामालूम
सिर पर कीलें कंधों पर आग...
क्यों घुमता है वह बेतरह
बेढंगा झल्लाया...?
जानते हो आप
तो अपन को भी बतायें ज़रा!