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सुनें श्रीमान् / प्रकाश मनु

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सुनें श्रीमान्-
ढकोसले को ढकोसला
और तानाशाही को तानाशाही कहा जा सकता है अगर
किसी जुबान में। तो उसी जुबान में
कैदखाना है देश आपका
पिछले तीस सालों से एक अदद झुनझुना लिए
सिटपिटाता बजता हुआ

पिछले तीस सालों से चालाक बुड्ढों
के पाजामें के नाड़ों
और ठंडे अंधेरे में पड़ा है/सड़ा
देश (अगर वह है)
बदबू मारता अतीत से भविष्य तक

भीतर काली दीवारों गोल मेजों गोलमोल
चित्रित चेहरों पर
अंधाधुंध सिर मारती
खुद को
खुद से पछाड़ती जनता
जिसको काम के बाद के हराम आराम में
व्याख्या के लिए दिए गए हैं मकड़ी के जाले गर्द
गुबार केंचुए और चंद मुहावरे (!)
अश्लील दुनिया की गुह्य हरकतों के...

जनता नाम की इस अनपेक्षित खूसट औरत का
इसलिए हर पांच साल बाद
दरवाजों की संधि से फंेकी जाती है रोशनी
उत्सवधर्मी उल्लास में लपेट कर-
जिसे वे चुनाव कहते हैं!

जिससे बची रहे एक आशा
एक प्रतीक्षा
एक आशाकुलता अपने सब कुछ होने की
जिसके सहारे वे जनता के लिए
जनता के हित मंे
जनता के सिर पर
कर सकें सत्ता हस्तांतरण
सुख-अपहरण
दिन दहाड़े!...

जी, श्रीमान्-यही है करीब-करीब
असली हिंदुस्तान की जिंदा कहानी
यानी-
चिकने चेहरों की रंगदार पालिशों और साजिशों
के नीचे लगातार खारिज होती
घिसी जिंदगी
की घिन की कथा-
(असुविधाजनक भाषा में खुलती
झल्लायी व्यथा
एक और अड़ियल कबीर की!)

व्याकरण की नाक के नीचे दबा, सांय-सांय करता यह
गुस्सा
आपकी बारीक प्रज्ञा पर
भारी तो नहीं पड़ता
-क्यों श्रीमान्??