दीवार बनकर खड़े हैं दुःख
चुभते हैं विषैले शूल की तरह
रिसता है लहू जल-प्रपात-सा
थकी-हारी देह से
'नियति' के बहाने
अच्छा प्रपंच रचा है तुमने
ज़ख़्मों से पटे चेहरे
अब पहचाने नहीं जाते
अरे, अब तो मान लो
किस सभ्यता के वंशज हो तुम!
दीवार बनकर खड़े हैं दुःख
चुभते हैं विषैले शूल की तरह
रिसता है लहू जल-प्रपात-सा
थकी-हारी देह से
'नियति' के बहाने
अच्छा प्रपंच रचा है तुमने
ज़ख़्मों से पटे चेहरे
अब पहचाने नहीं जाते
अरे, अब तो मान लो
किस सभ्यता के वंशज हो तुम!