Last modified on 1 जुलाई 2015, at 14:26

बैसाखियाँ / रामभरत पासी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:26, 1 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामभरत पासी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

नहीं चाहिए हमें
तुम्हारी बैसाखियाँ
नहीं आना है
तुम्हारे फ़रेब में अब
सदियों से
करते रहे हो मनमानी
बदले बैसाखियों के
हमारे काँधों को
पहनाते रहे हो
गाड़ी का जुआ
करके सवारी
बरसाते रहे हो चाबुक
क्या
यही है हमारी नियति?
इससे तो अच्छा है
स्वाभिमान के साथ
ज़मीन पर रेंगना
कम से कम तब
तुम नहीं पहना पाओगे
हमारे काँधों को
गाड़ी का जुआ
नहीं छीन पाओगे
हमारा स्वाभिमान
नहीं कर पाओगे
हमें लहू-लुहान...

इसलिए हे द्विज श्रेष्ठ
ले जाओ अपनी बैसाखियाँ

अब हमें ख़ुद तय करनी है
अपनी मंज़िल
ख़ुद ही सीखना है
चलना
और जब हम
सीख लेंगे चलना
तब तो
विपरीत हो जाएँगी परिस्थितियाँ
उस वक़्त
गाड़ी का जुआ होगा
तुम्हारे काँधों पर
बिलबिलाओगे
चाबुक की पीड़ा से
पाँव दे जाएँगे जवाब
लड़खड़ाओगे
अपनी आत्मा का बोझ भी
नहीं सह पाओगे
तब हे मनु-श्रेष्ठ
बहुत काम आएँगी तुम्हारे
ये बैसाखियाँ!