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सिसकता आत्मसम्मान / सी.बी. भारती

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(1)
स्वतन्त्रता के अधूरे एहसास से
धूमिल आत्मसम्मान के व्यथित क्षणों में
ठहर-ठहर कर
स्मृतियों के दंश
घावों को हरा कर देते हैं
याद आती है
पगडंडियों पर से भी
न गुज़रने देने की रोक-टोक
टीचर व सहपाठियों की कुटिल-दृष्टि
उनके बिहँसते खिजाते अट्टहास-
ठेस पहुँचाते घृणित असमान व्यवहार
पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ वंशजों के बेगार
ढंग से कपड़े न पहन पाने की मजबूरी
अन्धकार में डूबे घरों में
टिमटिमाती ढिबरी की लौ
रोटियों के लिए मशक्कत व
करूण-क्रन्दन की चीत्कार भरी यादें
भूखे-नंगे बचपन की!

(2)
हो सकता है
आज़ादी तुम्हें अपरिचित-सी लगे
क्योंकि-
इन एहसासों की अनुभूति के अवसर
तुम्हें मिले ही नहीं
आज़ादी का मतलब
इज़्ज़त की ज़िन्दगी— पेट भर भोजन
जीवनयापन के साधन— शिक्षा के अवसर
ढके तन— निखरे बदन
परन्तु ग़ुलामी?
ग़ुलामी तो तुम्हें ख़ूब याद होगी
ग़ुलामी तो
तुम्हारे नाम की ही पर्याय है न!
तुमने जी है ग़ुलामी
कीड़े-मकोड़ों से बदतर ज़िन्दगी
छीजती इज़्ज़त
बिखरते सम्मान व
लुटती बहन-बेटियों की आबरू
तुमने भोगी है! भोगी है!!