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व्यथा-कथा / पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी

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समय-समर की
व्यथा-कथा क्या सुनायें
बरामदे में टंगे पिंजरे के तोते-सा क्या दुहरायें
साथी छूट गये सब
जीवन-वृत्त बनाते
यह जीवन भी लुटता जाता है
अपने ही हाथों
अरमानों की चिता सजाते
अंगुलियों पर गिन-गिन कर
अजपा जाप-सी दोहराई गयी बातें
रहती हैं मिलती-ख़ुशहाली के बहाने

सनातन संस्कृति-सभ्यता की गरिमा
आश्वासनों की जूठन
धरती की कोख कुरेदती
बनती बड़ा-सा गड्ढा
गिट्टी पीसने की मशीन-सी
भूख—
दिन-रात पीसती पसली-पसली
अँधेरी गलियों में रेंगती
बच्चों-सी आँख मिचौली खेलती
जलते रबर के टायर-सा
कसैला धुआँ छोड़ती ग़रीबी
आस-पास मँडराती है मचली-मचली
बाँझ बस्ती में

यहाँ-वहाँ उग आयीं कुछ झोपड़ियाँ
गाँवों में धुत पड़ी मानव आकृतियाँ
जिनकी हथेली की रेखाएँ भी चुप
आँखों में सुरंग-सा अँधेरा घुप्प
सहते रहे जो सदियों का सन्ताप
तन पर, मन पर शास्त्र-शस्त्र के अनन्त घाव
योजनाओं के परनालों में करोड़ों का स्राव
फिर भी ये
जहाँ के तहाँ खड़े हैं
निर्माण में सीना तानकर अड़े हैं
कविताओं की देगची में पकाये भात की
खुरचन बचाओ
आक्रोश-से तनी नंगी बाँहों को न्याय
दिलाओ
इनकी व्यथा-कथा के गीत ही न गाओ
बस गीत ही न गाओ
मीत बनाओ— मीत बनाओ!