मेरे भीतर एक दरख्त है
हरियाली के फव्वारे की तरह
गोल व छतनार-
और उसकी पत्तियां लाल और हरी हैं
बचपन से उसे बढ़ते
फैलते महसूसा है मैंने
हालांकि कभी छू नहीं सका हूं।
कहते हैं
हर आदमी के भीतर है
ऐसा ही एक दरख्त,
और वह सिर्फ एहसास से ही
टटोला जा सकता है।
और उसकी पत्तियां वक्त के साथ
आकार,रूप और रंग
बदलती है, तो भी-
कभी पूरी तरह बदल नहीं जाती,
वे कभी पीली नहीं पड़ती
और पतझड़ उन्हें चबा नहीं पाता।
इसके बजाए
बुढ़ापा होते ही एक अजब, शांत-
संतुलन पा लेता है पेड़
और पत्तियों की कोरें
इस पेड़ं का शिखर
कभी-कभी बाहर के मैदानों
घाटियों, पहाड़ों तक चमकता है
और नदियों नहाता है-मीलों दूर-
फिर भीतर ‘लय’ हो जाता है।
बाहरी प्रकृति को नया रंग, नया खून
और जीवन का
नया अध्याय देता है वह
वही है हमारे असमाप्त नाटक का नया अंक
हमारी आत्मा का लीला-मंच
जहाँ आकर हर दफा नया यौवन पा लेता है
हमारे भीतर कोई इच्छाखोर ययाति ।
बड़े-बूढ़े आज भी यहीं से
छेड़ते हैं,
अनुभव की खराश से सीझी हुई कोई कहानी-
और बहुत-बहुत तरल हुआ मन
सोचता है बार-बार-
क्या यही वह जगह है
जो मेरे होने की असली वजह है।