यार कवि !
थोड़ा हँसा करो कभी, कभी रो भी लिया करो थोड़ा,
यूँ ही किया करो कुछ बे-मतलब की बातें कभी-कभी।
जरूरी तो नहीं कि -
तुम खाँसो तो भी हिला देना चाहो शेषनाग का फन।
मुट्ठियाँ भींचे-भींचे दर्द भी तो करती होंगी उँगलियाँ?
यार कवि !
कलम उठाओ तो कभी लिख लो हथेली पर कोई नाम,
डायरी के पन्ने पर छोटी-छोटी सामानांतर रेखाएँ खींच -
काट दो किसी तिर्यक रेखा से,
किसी पुरानी तस्वीर के माथे येब्बड़ी सी बिंदी बना दो।
जिंदाबाद-जिंदाबाद चिल्लाने वाली मशीन तो नहीं तुम।
यार कवि !
इतना भी गैरजरुरी नहीं आँगन उगी बेल की तारीफ।
ऐसा भी क्या -
कि नाप-तौल कर ही खर्च करो अपने शब्द हर बार,
आवाज में बनाए रखो एक नीरस-औपचारिक मधुरता।
कुछ तो दिखे जीवन और समझौते के बीच का फर्क।
यार कवि !
कभी-कभी तो लौटा लाओ आपना बचकानापन भी,
चीखों कि तुम्हारे हर कहे को कविता न समझा जाय।