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अप्पमादवग्गो / धम्मपद / पालि

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३३.
फन्दनं चपलं चित्तं, दूरक्खं दुन्‍निवारयं।
उजुं करोति मेधावी, उसुकारोव तेजनं॥

३४.
वारिजोव थले खित्तो, ओकमोकतउब्भतो।
परिफन्दतिदं चित्तं, मारधेय्यं पहातवे॥

३५.
दुन्‍निग्गहस्स लहुनो, यत्थकामनिपातिनो।
चित्तस्स दमथो साधु, चित्तं दन्तं सुखावहं॥

३६.
सुदुद्दसं सुनिपुणं, यत्थकामनिपातिनं।
चित्तं रक्खेथ मेधावी, चित्तं गुत्तं सुखावहं॥

३७.
दूरङ्गमं एकचरं , असरीरं गुहासयं।
ये चित्तं संयमेस्सन्ति, मोक्खन्ति मारबन्धना॥

३८.
अनवट्ठितचित्तस्स, सद्धम्मं अविजानतो।
परिप्‍लवपसादस्स, पञ्‍ञा न परिपूरति॥

३९.
अनवस्सुतचित्तस्स, अनन्वाहतचेतसो।
पुञ्‍ञपापपहीनस्स, नत्थि जागरतो भयं॥

४०.
कुम्भूपमं कायमिमं विदित्वा, नगरूपमं चित्तमिदं ठपेत्वा।
योधेथ मारं पञ्‍ञावुधेन, जितञ्‍च रक्खे अनिवेसनो सिया॥

४१.
अचिरं वतयं कायो, पथविं अधिसेस्सति।
छुद्धो अपेतविञ्‍ञाणो, निरत्थंव कलिङ्गरं॥

४२.
दिसो दिसं यं तं कयिरा, वेरी वा पन वेरिनं।
मिच्छापणिहितं चित्तं, पापियो नं ततो करे॥

४३.
न तं माता पिता कयिरा, अञ्‍ञे वापि च ञातका।
सम्मापणिहितं चित्तं, सेय्यसो नं ततो करे॥

चित्तवग्गो ततियो निट्ठितो।