खिड़कीसँ नीचाँ ससरिकय
इजोरिया
पसरि गेल अछि हरसिंगारक झमटगर
छाहरिमे
केबाड़क दोगमे नुका रहल अछि
हमरे कोनो कविताक
एकटा नवीन पाँती...
जेना हँसइत हो खिल खिल हमरे दुलारि
कन्या एहि जाड़मे बन्हने गाँती
आब जँ निन्न नहि भेल जीवन भरि
जागल रहि जायब
जीवन भरि एहि झमटगर छाहरिक
प्रत्याशामे
लागल रहि जायब
(रामकृष्ण झा ‘किसुन’ संपादित ‘मैथिलीक नव कविता’सँ, 1971)