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जागरण / जयनारायण झा 'विनीत'

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आइ धरि जगलहुँ अहाँ नहि, और सब कहिआ न जागल,
जागु, शारद-शशि-सुयशमे कलुष काजर धीर लागल।
भाग्य भवमे होड़ लागल अछि, अहीं धरि छी अभागत,
भेल अछि प्रतिकूल विश्व-विार-धारा बूझि पागल।

आउ, आबहु तँ अहाँ उठि देखु जीवन-युद्ध बाझल,
पार्थ भऽ पाछाँ छी, कोन विधि ई नीक लागल?
अउ, शौर्य देखाउ स्वत्वक समर दुस्तर गेल लाधल,
छोडु आलस वृत्ति आबहु बहममे की की न त्यागल?

की अहाँ पहिने रही, की आइ छी, ई तँ विचारू,
वीर-युगमे छी अहाँ, हुंकार सुनु, युग-धर्म धारू।
होउ विक्रम व्योममे धु्रव, युद्ध दिग्भ्रममे सम्हारू,
दस्यु-शिरसँ अपन जग-गुरु-मुकुट तँ आबहु उतारू।