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देखु / जयनारायण झा 'विनीत'

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देखु देखु विचारि,
जगत जीवन युद्धमे अछि कोन तरहक मारि।
अर्थ-लालच लक्ष्य सबहक
शस्य-शोषण नीति,
भऽ रहल एहि पर परस्पर
द्वेष अथवा प्रीति
राति दिन अछि दाव-पेंचक चलि रहल तरुआरि।

नाग-नगर निवास कऽ
निर्विष रहब नहि नीक,
वासुकी तक्षक बनू
बनु गरुड़ तँ अति नीक,
होउ हर, अविलम्ब देखू दृग तृतीय उघाड़ि।

सुमन सब विधि नीक लेकिन
ताहिसँ की काज?
युद्धमे छी जखन लोहे
तखन राखत लाज।
अछि सफल होयबाक तऽ बनु बहय जेहन बिहाड़ि।
रक्त-कर सँ भेल मृतवत्
ऋषिक आइ समाज
ऋषि न चाही, राम चाही
जतय रावण - राज
चेतु, रामक नाम राखू, भार भूतल टारि।
देखु देखु विचारि।