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मुर्गा बोला / रुद्रदत्त मिश्र

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‘कुकडू़ँ कूँ’ की बाँग लगाता,
बड़े सवेरे हमें जगाता।
चोटी लाल, पंख रंग वाले,
चला अकड़ से चोंच निकाले।
सिर ऊँचा कर मुर्गा बोला,
मानो कानों में रस घोला।
‘उठो भाइयो हुआ सवेरा,
दिन का काम पड़ा बहुतेरा।’
गली-गली में ढूँढा दाना,
घूरे पर चढ़ खाया खाना।
पंजों से कूड़े को फैला,
कर डाला सारा घर मैला।
इसकी मुर्गी अंडे देती,
दड़वे में रह उनको सेती।
चलती मुर्गी आगे-आगे,
बच्चे उसके पीछे भागे।
कुत्ता इस पर घात लगाता,
बिल्ली का भी मन ललचाता।
जब कोई है इसे डराता,
झट यह ऊँचे पर चढ़ जाता।
जिसने घर में इसको पाला,
मुट्ठी भरकर दाना डाला।
उसके घर यह धूम मचाता,
बच्चों से है घर भर जाता।