Last modified on 10 अक्टूबर 2015, at 01:48

हल्लाड़ी / असंगघोष

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:48, 10 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=खामोश न...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक हल्लाड़ी<ref>पत्थर की शिला</ref>
घर में थी
जिस पर पीसा करती थी
माँ प्रतिदिन
काँदा, लहसन, खड़ी मिर्च
पोस्त के साथ पानी मिला
ज्वार की रोटी खाने, चटनी
चटनी जिसमें
हम पाते थे स्वाद
लजीज दाल सब्जी का एक साथ

सुबह-शाम, दोपहर।
भरी दोपहरी में
जब सूरज आसमान मंे
ठीक सिर के ऊपर
टँगा होता
फसल काटती माँ
दोपहरी की छुट्टी में
उसी चटनी से
खाती ज्वार की एक रोटी
पानी पी फिर काम में लग जाती
शाम को मजदूरी में मिलते
ज्वार के गिने-चुने फंकड़े<ref>ज्वार की बाल/गुच्छा</ref>
जिन्हें घर ला माँ झाड़ती डण्डे से
निकालती थी ज्वार रात में
हम दिखाते दिनभर धूप

शब्दार्थ
<references/>