मैं भी परिन्दों की भाँति
अनन्त मुक्ताकाश में
विचरण करना चाहता हूँ,
पर
जाति के बोझ से झुके कंधे
मुझे उड़ने नहीं देते
इन्हें कैसे हल्का करूँ!
पेट भरने की चिन्ता
व
अर्थाभाव की बेड़ियों ने
मेरे पैरों को जकड़ा हुआ है,
निष्ठुर समाज ने
होश सम्भालने से पहले ही
मेरे पर काट दिए हैं,
किन्तु
मन के परों को फड़फड़ाने से कैसे रोकूँ
चाहता हूँ उड़ना
कोई बताए,
कैसे उडूँ।