इस चौक में
कभी रही होंगी
तीन गुल्लियाँ
तभी तो
यह कहलाता
तीन गुल्ली
अब एक भी गुल्ली
दिखाई नहीं देती
यह गुल्ली हैक्या
कोई नहीं जानता
बस तीन गुल्ली है
तीन गुल्ली माने
सागर तरफ जाने का
रोड मिलता है जहाँ
वही जगह है
तीन गुल्ली,
लेकिन एक भी गुल्ली वहाँ
कभी दिखाई नहीं देती
जात-पांत की तरह
यह भी छिप गई है कहीं
या काट ली गई होगी
कालान्तर में महुआ पीते-पीते
पर अब कौन जानता है
गुल्ली को
उसके नाम को
उसके परिणाम को
इसी चौराहे के पास खुले ठेके पर
महुआ भी सरकार ही बेच रही है
फिर भी चौराहे का नाम तीन गुल्ली ही है
वहाँ नहीं है अब कोई पेड़ गुल्ली का
हाँ एक तरफ किनारे पर
बूढ़ा पीपल जरूर खड़ा है
जिसके नीचे बैठता था मोचीराम
करने जूतों की सिलाई
फिर क्यों कोई
इसका नाम बदल कर
पीपल या बोधि-चौक नहीं रख देता,
कहने को यहाँ सियाराम है
राधेश्याम-सियाराम है
जो बनाते हैं दूध का हलुआ
हाथोहाथ बिक जाता है यह हलुआ
बताओ दूध का भी हलुआ बनता है
हाँ!
यहाँ कहते तो सभी यही हैं
ज्यादा कुरेदो तो कहने लगते हैं
हलुआ मतलब कलाकंद
तब भी चौक का नाम
सियाराम राधेश्याम चौक नहीं
कलाकंद चौक नहीं
हलुआ चौक नहीं
बोधिवृक्ष चौक भी नहीं
मोचीराम के नाम पर तो हर्गिज नहीं
बस ‘तीन गुल्ली’ है
खामख्वाह
मैं भी मरा जा रहा हूँ
इसके नाम पर
कोई अमर नेता तो मरे
तब ही रख देंगे
तीन गुल्ली की जगह
उस नेता का नाम।