Last modified on 14 अक्टूबर 2015, at 21:37

अबकी बार / असंगघोष

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:37, 14 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=मैं दूँ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

छत पर सोता हूँ गाँव में
मेंहदी की घनी झाड़ियों के बीच
बढ़े
बबूल के सिरहाने

मई-जून की तपत में
बिन बिजली, बिन ए.सी.
आधी रात बीतते ही
कंबल ओढ़
लेता हूँ
मीठी नींद
कि अलस्सुबह उठाते हैं
बबूल पर बैठे मोर
एक-दो नहीं
पूरे आठ-दस
जोर-जोर से चिल्लाते
मैं जाग जाता हूँ

थोड़ी ही देर में
लाउडस्पीकर पर
देती है सुनाई
अज़ान
फजल की नमाज़ का भी
समय हो गया है

पड़ोस के मंदिर में
मंगला आरती होती है
जहाँ कभी मैं
गया ही नहीं
मेरे लिए प्रवेश मना था

मोर फिर चिल्लाने लगे हैं
उनकी इस चिल्लाहट में
शामिल हो बंदरों की फौज
टीन की छतों पर
कूदते-फांदते
धमा-चौकड़ी मचाती है

अब नींद नहीं आती
यह रोज का किस्सा है
गाँव के लोग आदी हैं
पर मैं नहीं
इसलिए
इस बार गर्मियों में
फिर गाँव जाऊँगा
अबकी बार
सब से पहले
उस बबूल को काटने।