Last modified on 14 अक्टूबर 2015, at 21:53

धाप्या ढेढ़ / असंगघोष

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:53, 14 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=मैं दूँ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

लोग जाते हैं रोज
इस चहारदिवारी के भीतर
सुबह सुबह
कुछ अकेले
कुछ महरारू तो
कुछ किसी और के साथ
कुछ घूमते हैं
कुछ दौड़ते हैं
कुछ मार्निंग वॉक करते हैं
कुछ योगा
मैं अपना झोला सम्हाले
बैठा रहता हूँ
ग्राहक की आस में
शायद इनमें से कोई हो
जिसका जूता फटे, दौड़ते हुए
वो रिपेयर कराने आए मेरे पास
आज तक तो कोई नहीं आया
पर उम्मीद रखने में
मेरे बाप का क्या बिगड़ता है
वो भी किंग्स गार्डन के सामने
नर्मदा क्लब के किनारे
जहाँ अपनी आँखों से
सेहत ठीक करते रहते हैं
ये बड़े लोग
एक दिन कौतुहलवश
मैं भी चला गया
किंग्स गार्डन के भीतर
मुझे देख जो दौड़ रहे थे
वे यकायक रुक गए
जो चल रहे थे
उनके पाँव थम गए
पत्थर की बेंच पर
बैठे लेाग मेरी ओर
घृणापूर्वक देखने लगे
जो कर रहे थे कपालभारती
उनकी सांस ऊपर की ऊपर और
नीचे की नीचे रह गई
सम्भवतः सोचने लगे
यह मैला-कुचैला
क्यों घुस आया है
हमारी दिनचर्या में

शाम को फिर से
जमने लगती है
रंग-बिरंगे परिधानों में
सजी-सँवरी ीाीड़
किंग्स गार्डन में
जिसके बाहर चाट के
खोमचे खड़े रहते हैं
मैं ग्राहक की आस में
टूंगता रहता हूँ उन्हें
जो खा-खाकर
मुटियाते जा रहे हैं
हमारे हिस्से का अन्न भी
खोजती रहती हैं
मेरी नजरें उनमें से
कोई एक भूखा भी मिले
जिसमें व्यापती हो
उसकी भूख
फैलते अंधकार की तरह
वो खा रहा हो
अपनी भूख मिटाने।