Last modified on 14 अक्टूबर 2015, at 21:56

क्या तुम हो / असंगघोष

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:56, 14 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=मैं दूँ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वो
जो रूई की बनी थी
उसका अंग अंग
उतना ही कोमल था
जितनी कोमल थी
आंगन में खड़े
सेमल की रूई,
वो चलती थी तो
ऐसे जैसे
हवा में तैर रहे हों
सेमल के फुंदे
वो मेरे
दिलो-दिमाग पर छाई
और
अपनी कोमलता को
बाँटती बर्बाद हो
अनंत आकाश में
फैल गई
व्याप गई
कण-का में
उसे अपनी बाँहों में
समेटने नभ भी छोटा था।