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अनाथ गौरैया / असंगघोष

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दादा डालते थे दाना
रोज सुबह नियम से
चुगने उतर आतीं थीं
दाड़िम के पेड़ से आंगन में
बेधड़क सबकी सब,
गौरैयाँ

बेरोक-टोक-बेखौफ
आज नहीं आती हैं वे
घर के आँगन में
जो अब बचा ही नहीं
उसकी जगह ले ली है
चहार दिवारों में बने
रोशनदानों ने

खिड़कियों ने
दिवार पर टँगी
दादा की तस्वीर के पीछे
खाली जगह में,
ट्यूबलाइट व बल्ब के
होल्डर के ऊपर
गौरैया ने
अपना घर बसा लिया है
एक घर के अन्दर
बने घर में
जहाँ गौरैया को जाने में
छत में टँगे
घूमते पंखे से
जान का खतरा है
जिससे
हम तो अनजान नहीं हैं
पर गौरैया अनजान है

वह जा बैठती है
कभी बंद पंखे पर
कभी चलते पंखे से
टकरा
घायल हो
गिर जाती है

उसे सहानुभूति से उठाकर
इलाज करने वाला
कोई नहीं है
अब दाना डालनेवाला भी
कोई नहीं है!

उस आँगन में
जो कैद है चहार दीवारी में
हमारी संवेदनाएँ मर चुकी हैं
निरीह पक्षियों के लिए
दादा के चले जाने के बाद
गौरैयाँ अनाथ हैं।