निर्धूम गगन-सा मैं जलता!
जब सो जातीं जग की आँखें;
मन आँसू बन चुपके ढलता!
सबने इसको मधुज्योति कहा,
लेकिन किसने समझा छाला?
है दाग दर्द का सीने पर,
जग कहता, ‘तारों की माला’
होती है जिसकी प्रकट जलन
बनकर बिजली की चंचलता!
निर्धूम गगन-सा मैं जलता!
मेरी आहें बनकर बदली
अन्तस्तल पर छातीं हरदम,
जिनके रन्ध्रों से फूट पड़े,
ये दुर्दिन के कोमल सरगम;
जिसकी करुणा में मूक भरी
मेरे जीवन की आर्द्र कथा!
निर्धूम गगन-सा मैं जलता!
हरगिज न प्रकट होता जल बन
मेरी आँखों का सावन-घन,
यदि जल-जलकर बेकल न हुआ
होता भूतल का मृदु यौवन!
औरों के दुख में ही फूटा
करती है मेरी दुर्बलता!
निर्धूम गगन-सा मैं जलता!
(17.9.1947)