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खिड़कियाँ दो खोल / श्यामनन्दन किशोर

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खिड़कियाँ दो खोल,
आने दो उन्हें, जो कुलबुलाते हैं।

द्वार तक आकर, विकल तुमको जगाते हैं।
मुँह छिपाने से अँधेरा मिट न पायेगा,
बन्द चाहे कान जितनी बार कर लो,
है अगर ऋतुराज, कोकिल गीत गायेगा।

समय की आवाज ही आकाश-भाषित है
मत करो उनकी उपेक्षा, कंठ जिनके अभी फूटे हैं,
प्राण के तूणीर से जिनके, शब्द बनकर मंत्र छूटे हैं,
तुम लगाओ गले, जो तुमको बुलाते हैं

खिड़कियाँ दो खोल,
आने दो उन्हें, जो कुलबुलाते हैं।

जो गये, वे प्रेरणा के स्रोत, यह मैं मानता हूँ,
जो नये, वे शक्ति ओत-प्रोत, यह भी जानता हूँ।
पूर्वजों के नाम की ये तख्तियाँ भारी-
नयी पीढ़ी की अगर गर्दन झुकाती हैं, सहेगा कौन उनको?
कहेगा कौन इनको सुमरनी कंकाल की ले लो?
कहेगा कौन किरणों को, लहर से तुम नहीं खेलो?

स्वप्न उनका लिखेंगी चिनगारियाँ ही,
लोरियाँ तूफान ही जिनको सुनाते हैं।
खिड़कियाँ दो खोल,
आने दो उन्हें, जो कुलबुलाते हैं।

सिर्फ शीर्षकहीन होने से नहीं तुम,
रद्दियों के टोकरे में गीत को डालो।
सिर्फ भाषा-दोष से मत तुम किसी की
दर्द-धोयी प्रार्थना टालो।

अनकहे को आज वाणी दो कि प्यारे,
अनसुने को कान दो।
स्वप्न में जो घुट रहे हैं छटपटा,
तुम उन्हें भी रूप दो, निर्माण दो।

है न भाषा सिर्फ अभिलाषा
एक मरु ही है नहीं प्यासा
चीखकर जिसने जगाया जग गये तुम।
अब उन्हें भी गुनो, जो संकेत से तुमको सुनाते हैं।

खिड़कियाँ दो खोल,
आने दो उन्हें, जो कुलबुलाते हैं।

(11.1.72)