गांधी तू छोड़ गये हमको,
हम पग-पग पर घबड़ाते हैं।
कठिनाई के पर्वत लख कर,
हम सबके सब डर जाते हैं।
अरथी वीरों की चलती है,
नेता मेरे खो जाते हैं।
विपदा पर विपदा आती है,
तम के सागर लहराते हैं।
आजादी का सपना देखे,
‘भोलो भाई’ को खो करके।
बेड़ी छूटी, जंजीर हटी,
पर माता को दो टूक करके।
थी जगह रिक्त ‘देशाई’ की,
दुख-दर्द न थे हम भूल सके।
यद्यपि जननो स्वाधीन हुई,
पर खुलकर हम तो गा न सके।
तब तक तो तूने ही जग से,
हंसते-गाते प्रस्थान किया।
दुखिया भारत की नैया को,
भवसागर में ही छोड़ दिया।
सर्वत्र उदासी ही छायी,
आफत पर आफत जो आयी।
भारत की बातें मत पूछो,
जग की आँखें भी भर आयी।
पर क्या करता लाचार मनुज,
जो कुछ भी आया भोग लिया।
तेरी ही माला को जपते,
अपने कष्टों को भूल गया।
पर नियति नहीं निस्करुण बनी,
फिर हम पर बज्राघात हुआ।
प्यारा ‘पटल’ भी छिना गया,
भारत उपवन वीरान हुआ।
उस लौह पुरुष के जाने से,
प्यारा भारत बेहाल हुआ।
तेरा, उनका, सबका संचित,
सब कुछ यों ही बर्बाद हुआ।
है अभी-अभी भारत सिर पर,
संकट का वज्राघात हुआ।
बेचारा ‘आयंगर’ जिससे,
सबकी आँखों से दूर हुआ।
आँसू हरिजन की आँखों में,
आँसू दलितों के नयन में।
आँसू अछूत की आहों में,
आँसू दुखिया के कण-कण में।
आँसू भारत की आँखों में,
स्वाधीन शिशु की आँखों में।
कैसे तुम देखोगे बापू,
डूबता देश मजधारों में।
गौतम थे हमसे दूर हुए,
हिंसा तब थी दौड़ी आयी।
बैसम्य समाज बना तब था,
थी दैन्य अहिंसा भी आयी।
पग-पग पर था पापाचार हुआ,
दलितों का रवि था अस्त हुआ।
तब भेजा उसने था तुमको,
जिससे जग का कल्याण हुआ।
इसलिए निवेदन है तुमसे,
आओ तुम पुनः चले आओ।
युग-युग के दैन्य अविद्या की,
अंधियाली अमाँ मिटा जाओ।
यदि स्वयं नहीं आ सकते हो,
भेजो अपने ही सम कुछ को।
जो आकर दीप जला जावे,
चमका कर सत्य अहिंसा को।
-दिघवारा,
12.2.1953 ई.