सुबह-सवेरे निकलती है
स्त्री
झेलती है
देह और मन पर
टुच्ची निगाहों
बातों और
हरकतों के वार
दिन भर करती हुई काम
पाती है सहकर्मियों की
आँखों और होंठों पर
मुस्कान।
दफ़्तर
बाजार
सड़क
समारोह
घर
हर जगह वही...वही
सिर्फ देह समझे जाने का अपमान।
घर लौटकर साबुन...पानी और आँसुओं से
रगड़-रगड़कर धोती है
देह और मन पर चिपकी गन्दगी।
देर रात तक बिस्तर पर लेटे
सोचती है-
इन दिनों जल्दी थकने लगी हूँ
कैसे चलेगा ऐसे
एक अनिश्चित भविष्य
उड़ा देता है उसकी नींद
फूट-फूटकर रोती है
दिन-भर तटस्थ रही स्त्री
जाने कब उतर आता है
नींद में उसका मनचाहा पुरुष
टूटता है सपना
सोचती है स्त्री
क्यों होता है उसकी आँखों का सपना
फिर...फिर वही पुरुष
जिसकी हकीकत जान चुकी है
सपनों से ठगी गयी स्त्री
सुबह होते ही चल पड़ती है
फिर अपने मोर्चे पर...।