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नेस्तानाबूद / रंजना जायसवाल

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पंजों के बल उचकती है
कभी चढ़ जाती है
स्टूल, तिपाई या मेज पर
होने के लिए जमीन से कुछ बालिश्त ऊँचा
ताकि समेट सके उनको भी
जो हैं पहुँच से बाहर उसके
कमर में आँचल खोंसे
मुँह में भरे कुनेन
माथे पर देकर बल
जब उठाती है वह लक्ष्य भेदी झाडू
आकाश सरक जाता है
थोड़ा और ऊपर
धरती धसक जाती है नीचे जरा और
मजबूती से बने तार
हो जाते हैं तार-तार
उसके मजबूत इरादों के आगे
उन्हें वह बेहद पसन्द है
बहुत पुराना साथ है उनका
पर वे उसे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते
उसकी रात उनके सपनों से खत्म होती है
और सुबह उनकी तलाश से
वे भी कम खिलंदड़े नहीं खेलते हैं उससे
लुका-छिपी का खेल
छिपने के लिए नयी से नयी जगह तलाश लेते हैं
तलधर...कानों, मर्तबानों...कुर्सियों, पलंग के नीचे, मशीनों
ग्रन्थों ही नहीं वे तो जा छिपते हैं देवताओं के पीछे भी
फिर भी छिप नहीं पाते उसकी तेज निगाहों से
शरण देने वाले देवता बेचारे भी
खा जाते हैं झाडू की दो-चार मार
नेस्तनाबूद करके ही लेगी दम वह
उन जालों को
जो जड़ जमाए बैठे हैं
घरों
संस्कारों
ग्रन्थों
और पूरी शताब्दी में।