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हमारी नींद / हेमन्त कुकरेती

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एक-दूसरे का ग़म खाकर
अभी हम सोने की सोच ही रहे थे कि
मछलियाँ जीवित होकर छटपटाने लगीं
झुलस गयीं हमारे हिस्से की वनस्पतियाँ
नदी छलछलायी थाली में

रोगी थे हमारे शरीर
हमारे बिलों में पहाड़ों की हवा?
और पानी कैसे मिलते?
वहाँ अभावों की पीली पड़ती हुई
चिट्ठी-पत्री थी
उन्हीं को बचाना मुश्किल हुआ जा रहा था

ताजे़ फल और सब्ज़ियाँ खानी थीं हमें
हमें थमा दी गयीं गोलियाँ
कि उन्हें खाकर मरो
कैसे कटता रोग

हमारा पसीना दुनिया के बैंक में
जिसके खाते में जमा था
वह खाने की जगह हमें खाता था
ख़ून हमारी नसों में कैसे बहता
उसे तो वह चूस रहा था
अब हम रोते हैं तो वह शिकायत करता है
कि उसे सोने नहीं देते
हम आपस में बोलते हैं तो वह रिपोर्ट लिखता है कि
हम दंगा कर रहे हैं

हम सो कैसे सकते हैं
हमारे सपनों के तो शेयर खरीद लिये गये हैं