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होली-2 / नज़ीर अकबराबादी

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क़ातिल<ref>कत्ल करने वाला, मार डालने वाला, प्रिय पात्र। व्यंग्यार्थ वह प्रिय पात्र जिसे देखकर दिल काबू में न रहे</ref> जो मेरा ओढ़े इक सुर्ख़ शाल आया।
खा-खा के पान ज़ालिम कर होंठ लाल आया।
गोया निकल शफ़क़<ref>उषा, शाम की लाली</ref> सेस बदरे कमाल<ref>खू़बियों से भरा चांद</ref> आया।
जब मुंह में वह परीरू<ref>परियों जैसी शक्ल-सूरत वाला, वाली</ref> मल कर गुलाल आया।
एक दम तो देख उसको होली को हाल<ref>ईश्वर प्रेम परक रचना या गीत सुनकर अथवा सुन्दर दृश्य देखकर सुधबुध खोकर आनन्द विह्वल हो जाना</ref> आया।1॥

ऐशो तरब<ref>सुख, भोग-विलास, हर्षोल्लास</ref> का सामां है आज सब घर उसके।
अब तो नहीं है कोई दुनियां में हमसर<ref>समान</ref> उसके।
अज़ माहताब माही<ref>चांद से लेकर मछली तक, आकाश से पाताल तक</ref> बन्दे<ref>सेवक</ref> हैं बेज़र उसके।
कल वक़्ते शाम सूरज मलने को मुंह पर उसके।
रखकर शफ़क़ के सरपर तश्ते गुलाल<ref>गुलाल भरा थाल</ref> आया॥2॥

ख़ालिस कहीं से ताज़ी एक जाफ़रां<ref>केसर</ref> मंगाकर।
मुश्को गुलाब<ref>कस्तूरी और गुलाब</ref> मंे भी मल कर उसे बसाकर।
शीशे में भर के निकला चुपके लगा छुपा कर।
मुद्दत से आरजू थी इक दम अकेला पाकर।
इक दिन सनम<ref>प्रिय पात्र</ref> पे जाकर में रंग डाल आया॥3॥

अर्बाबेबज़्म<ref>महफिल के साथी</ref> फिर तो वह शाह अपने लेकर।
सब हमनशीन<ref>साथी</ref> हस्बे दिलख़्वाह<ref>मनमाने</ref> अपने लेकर।
चालाक चुस्त काफ़िर गुमराह अपने लेकर।
दस-बीस गुलरुखों<ref>फूल जैसे सुन्दर मुख वाले</ref> को हमराह अपने लेकर।
यों ही भिगोने मुझको यह खुशजमाल<ref>सुन्दर, हसीन</ref> आया॥4॥

इश्रत<ref>आनन्द, खुशी</ref> का उस घड़ी था असबाब<ref>सामान</ref> सब मुहय्या<ref>मौजूद</ref>।
बहता था हुस्न का भी उस जा पे एक दरिया।
हाथों में दिलबरों के साग़र<ref>प्याला</ref> किसी के शीशा<ref>बोतल</ref>।
कमरों में झोलियों में सेरों गुलाल बांधा।
और रंग की भी भर कर मश्को पखाल<ref>मशक, पुर, पानी भरने की बड़ी मशक</ref> आया॥5॥

अय्यारगी<ref>चालाकी</ref> से पहले अपने तई छिपाकर।
चाहा कि मैं भी निकलूं उनमें से छट छटाकर।
दौड़े कई यह कहकर जाता है दम चुराकर।
इतने में घेर मुझको और शोरो गुल मचाकर।
उस दम कमर-कमर तक रंगो गुलाल आया॥6॥

यह चुहल तो कुछ अपनी किस्मत से मच रही थी।
यह आबरू की पर्दा हिर्फ़त<ref>चालाकी, छल</ref> से बच रही थी।
कैसा समां था कैसी शादी सी रच रही थी।
उस वक़्त मेरे सर पर एक धूम मच रही थी।
उस धूम में भी मुझको जो कुछ ख़याल आया॥7॥

लाजिम न थी यह हरकत ऐ खुश-सफ़ीर<ref>खुशी लाने वाले</ref> तुझको।
अज़हर<ref>जाहिर</ref> है सब कहे हैं मिलकर शरीर<ref>चंचल</ref> तुझको।
करते हैं अब मलामत<ref>निन्दा</ref> खुर्दो कबीर<ref>छोटे-बड़े</ref> तुझको।
लाहौल<ref>घृणा और उपेक्षासूचक वाक्य</ref> पढ़ के शैतां<ref>शरारती</ref>, बोला ”नज़ीर“ तुझको।
अब होली खेलने का पूरा कमाल आया॥8॥

शब्दार्थ
<references/>