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होली-9 / नज़ीर अकबराबादी

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आलम<ref>संसार</ref> में फिर आई तरब<ref>आनन्द</ref> उनवान<ref>शीर्षक</ref> से होली।
फ़रहत<ref>खुशी, आनन्द</ref> को दिखाती ही गई शान से होली।
रंगी हुई रंगों की फ़रावान<ref>अत्यधिकता, बहुत अधिक होने से</ref> से होली।
गुलगू<ref>गुलाब जैसे रंग वाली</ref> है गुलालों की गुल अफ़्शान<ref>फूल बरसाने वाली</ref> से होली।
झमकी तरबो ऐश के सामान से होली॥1॥

दफ़ बजने लगे हर कहीं गुल शोर की ठहरी।
गलियों में हुई खु़शदिली और कूंचों में खूबी।
यह नाच लगे होने कि दिल खु़श हुए और जी।
और राग खु़श आवाज हुए ऐसे कि जिनकी।
हर तान लगी खेलने हर कान से होली॥2॥

है फ़रहतो इश्रत<ref>खुशी</ref> जो हर एक जा में फ़रावां।
चर्चे हैं बड़े धूम के चुहलें हैं नुमायां<ref>प्रकट, ज़ाहिर</ref>।
आये हैं तमाशे के लिए नाज़नी<ref>सुकुमार</ref> खू़बां<ref>सुन्दर स्त्रियां, प्रियतमाएं, माशूक</ref>।
होली का अजब हुस्न बढ़ाते हैं यह हर आं<ref>क्षण, पल</ref>।
जब कहते हैं अपने लबे ख़न्दांन<ref>हंसते हुए होंठ</ref> से ‘होली’॥3॥

चेहरों पे गुलाल उनके लगा है जो बहुत सा।
आता है नज़र हुस्न का कुछ ज़ोर ही नक्शा।
है रंग में और रूप में झमका जो परी का।
देख उनकी बहारें यही कहते हैं अहा हा।
दुनियां में यह आई है परिस्तान से ‘होली’॥4॥

चमके हैं यह कुछ हुस्न परी चेहरों के ‘यारो’।
सब उनकी झमक देख के कहते हैं ‘उहो हो’।
फिरते हैं लगे चाहने वाले भी जो खुश हो।
पोशाक छिड़कवां से यह जाते हैं जिधर को।
वां उनके लगी फिरती है दामान से होली॥5॥

महबूबों में ठहरा है अजब होली का चर्चा।
जो रंग झमकता है पड़ा नाज़ो अदा का।
हर आन जताते हैं खड़े शोखि़यां<ref>चंचलता</ref> क्या-क्या।
और पान जो खाते हैं तो वह पान भी गोया।
खेले हैं बुतों के लबो दन्दान<ref>होंठ और दांत</ref> से होली॥6॥

मुखड़े पे गुलाल आता है जिस दम नज़र उनके।
होते हैं निगाहों में अजब हुस्न के नक़्शे।
पिचकारियां हंस हंस के जो हर दम हैं लगाते।
वह हाथ हिंनाबस्ता<ref>मेंहदी रचे हुए</ref> भी कुछ मलते हैं ऐसे।
जो खेलें हैं आशिक़ के गिरीबान<ref>कुर्ते या कमीज़ का गला, दामन, सिरा</ref> से होली॥7॥

वह शोख़ लिए रंग इधर जिस घड़ी आया।
फिर उस पे वही रंग बहुत हमने भी छिड़का।
उसने हमें और हमने उसे खू़ब भिगोया।
इस ऐश के नक़्शे को ‘नज़ीर’ आगे कहूं क्या।
हम खेले यह महबूब के एहसान से होली॥9॥

शब्दार्थ
<references/>